
छत्तीसगढ़ की संस्कृति:- छत्तीसगढ़ देश के सांस्कृतिक रूप से समृद्ध राज्यों में से एक है। यहां संस्कृति की दो धाराएं देखने को मिलती हैं। सबसे पहले वो आदिवासी जो सदियों से इस ज़मीन पर रहते आ रहे हैं, उनकी बोली, वेशभूषा, रीति-रिवाज, शिल्प आदि को जानने की इच्छा हमेशा से रही है।
आधुनिक समाज के संपर्क में आने के बाद उनकी संस्कृति पर काफी प्रभाव पड़ा। बुद्धिजीवियों के बीच यह भी चर्चा का विषय है कि क्या उन्हें ऐसे ही छोड़ दिया जाना चाहिए या उन्हें मुख्य धारा से जोड़ने के लिए विकास प्रक्रिया में शामिल किया जाना चाहिए।
कोई भी स्थिति आदर्श नहीं थी. संस्कृति को संरक्षित करने के लिए उन्हें अकेला छोड़ना व्यावहारिक नहीं था, खासकर जब जंगलों को काटा जा रहा था और विकास के लिए पहाड़ों को खोदा जा रहा था।
दूसरी ओर मुख्यधारा में शामिल होने के अपने नुकसान भी थे. आधुनिक बनने की चाह में सबसे पहले संस्कृति की बलि दी जाती है। उदाहरण के तौर पर बस्तर के आदिवासियों में प्रचलित गोटुल परंपरा को सभ्य समाज नहीं समझ सका। इसकी चर्चा पूरी दुनिया में आपत्तिजनक तरीके से हुई, परिणामस्वरूप शिक्षित आदिवासियों ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया।
आज यह संस्कृति लगभग नष्ट हो चुकी है। यदि इस प्रथा को सही अर्थों में समझा जाता तो शायद समाज के कई मुद्दे सुलझ गए होते। तमाम चुनौतियों के बावजूद आदिवासियों ने अपने संगीत, शिल्प, भाषा और कुछ रीति-रिवाजों को आज भी बचाकर रखा है।
राज्य सरकार भी अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए शिल्प ग्रामों, हाटों और मेलों का आयोजन, पुरातात्विक धरोहरों के लिए संग्रहालयों का निर्माण आदि प्रयासों के माध्यम से उनके विकास के लिए निरंतर प्रयास कर रही है।
वहीं, अगर हम इस जगह के इतिहास पर नजर डालें तो हमें पता चलता है कि यहां अलग-अलग राजवंशों ने शासन किया था। सभी शासकों ने अपने वंश के अनुसार यहां किले, मंदिर, महल और तालाब बनवाए। इनमें से कुछ आज भी सुरक्षित हैं तो कुछ समय की परत के नीचे दबे हुए हैं।
इसके अलावा यहां के प्रतिभाशाली कलाकारों ने शास्त्रीय संगीत, चित्रकला, साहित्य आदि क्षेत्रों में पूरी दुनिया में खूब नाम कमाया है।
यहां के राजा चक्रधर सिंह अपने शासन के लिए नहीं, बल्कि संगीत, शिव तांडव नृत्य और नृत्य के रायगढ़ घराने के क्षेत्र में अपनी विद्वता के लिए प्रसिद्ध हुए।
खैरागढ़ विश्वविद्यालय ने संगीत के प्रति राज्य की प्रतिबद्धता को और मजबूत किया। इसलिए यदि आप छत्तीसगढ़ को पर्यटन की दृष्टि से समझना चाहते हैं तो संस्कृति की दो धाराओं के बीच खड़े होकर देखें। यहां से सबकुछ साफ नजर आता है।
सांस्कृतिक एवं सामाजिक दृष्टि से छत्तीसगढ़ राज्य भारत की विभिन्न संस्कृतियों एवं समाजों का मिलन स्थल रहा है। छत्तीसगढ़ प्रांत की सीमाएँ विभिन्न भाषाई क्षेत्रों से मिलने के कारण सांस्कृतिक संपर्क, कला आदान-प्रदान और मेल-जोल भी स्वाभाविक था।
इस क्षेत्र में प्रागैतिहासिक काल से या इतिहास के ज्ञात कालखंडों में मानव गतिविधियाँ होती रही हैं। अत: यह स्पष्ट है कि सभी प्रकार की संस्कृति और उसके प्रतीक अर्थात् कला, शिल्प, भोजन, वेशभूषा, जीवन शैली, मेले, खिलौने, खेल, त्योहार आदि सभी यहीं पूर्णतः विकसित हुए।
कहा जा सकता है कि छत्तीसगढ़ कला और संस्कृति की दृष्टि से अतुलनीय है, चाहे वह लोक संगीत हो, पारंपरिक शिल्प हो या मेले।
यह एक ऐसा राज्य है जहां प्रकृति और परंपरा आज भी अपनी पूरी खूबसूरती के साथ मौजूद हैं। मेलों की बात करें तो छत्तीसगढ़ में प्राचीन काल से ही मेलों के आयोजन की एक लंबी शृंखला रही है। दरअसल, यहां हर त्योहार पर मेले लगते हैं।
यह भी कहा जा सकता है कि यहां के निवासी जीवन के हर अवसर को उत्सव की तरह मनाने के लिए मेलों का आयोजन करते हैं। यहां अगहन माह से ही मेलों की तैयारियां शुरू हो जाती हैं। यह समय ख़रीफ़ की फ़सलों के लिए माना जाता है।
पौष पूर्णिमा को छेरछेरा पर्व पर सगनी घाट, चरोदा, तुरतुरिया और गोरैया का विशाल मेला लगता है। वहीं अमोरा के तखतपुर, रामपुर बलौदा बाजार के रैनबोर और बेमेतरा में भी विशाल मेले लगते हैं। इसके साथ ही रौताही बाजार समाप्त हो जाता है और मेलों का सिलसिला शुरू हो जाता है, जो चैत्र माह तक चलता रहता है।
छत्तीसगढ़ लोक कलाओं का भी गढ़ रहा है। शास्त्रीय कलाओं का भी यहीं विकास हुआ। कला के सभी रूप जैसे संगीत, नृत्य, चित्रकला, मूर्तिकला, रंगमंच आदि सभी विकसित हुए। संगीत छत्तीसगढ़ के हर व्यक्ति के मन में है।
लोक संगीत जीवन का मुख्य तत्व है। प्राचीन संगीतकारों के नाम ज्ञात नहीं हैं, लेकिन विभिन्न परंपराओं में उनकी उपस्थिति आज भी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।
ऐसा लगता है जैसे आदिवासियों के लोकगीतों और वाद्ययंत्रों के माध्यम से प्रकृति स्वयं को स्वाभाविक रूप से अभिव्यक्त करती है। बाद में संगीत की इस विकास यात्रा में कुछ और नाम जुड़े। जैसे मुलमुला (बिलासपुर) के मृदंग, ध्रुपद और धमार पारखी मान सिंह, उनके शिष्य तबला वादक श्रीराम लाल, रायगढ़ के संगीत और नृत्य विशेषज्ञ चक्रधर सिंह, उनके शिष्य कार्तिक और कल्याण, रायपुर के सारंगी वादक अमर सिंह, ठुमरी गायक तुलसी राम, तबला वादक राम भरोस पोद्दार, सितार वादक भरेवन आदि की सूची बहुत लंबी है। छत्तीसगढ़ का संगीत प्रेम खैरागढ़ संगीत विश्वविद्यालय में प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है।
छत्तीसगढ़ के हर घर में चित्रकारी एक आम बात है। यह जीवन में शामिल है। लोक चित्रकला की प्राचीन परंपरा आज भी देखी जा सकती है। कोई भी तीज त्यौहार तस्वीरों के बिना पूरा नहीं होता। समय के साथ इनमें क्रमिक विकास भी देखा जा सकता है। आधुनिक युग के चित्रकारों में कुछ उल्लेखनीय नाम हैं रायपुर निवासी गणेश नाम मिश्र, धमतरी निवासी लक्ष्मी नारायण पचौरी, सुमिता अलंग, कुँवर रवीन्द्र आदि।
कला का दूसरा रूप हस्तशिल्प भी यहां अपनी पूरी शबाब पर मौजूद है। यहां की शिल्पकला अब पूरी दुनिया में अपनी पहचान बना चुकी है। लकड़ी की नक्काशी, बांस की वस्तुएं, मिट्टी की मूर्तियां, आभूषण आदि आज आधुनिक समाज का हिस्सा बन रहे हैं।
दरअसल ये सभी एक दूसरे से जुड़े हुए हैं. त्यौहार, मेले, पारंपरिक चित्रकला, हस्तशिल्प, नृत्य संगीत एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इनका आयोजन केवल मनोरंजन के लिए ही नहीं किया जाता था, बल्कि ये आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति भी करते थे। गौरतलब है कि समय के साथ कई परंपराएं खत्म होती जा रही हैं लेकिन छत्तीसगढ़ में वे आज भी जीवित हैं।