
खैरागढ़ राजधानी रायपुर से 140 किमी दूर है। और राजनांदगांव से 40 कि.मी. की दूरी पर स्थित है।
यह पहाड़ों, घने जंगलों और तीन नदियों से घिरा हुआ है। खैरागढ़ के प्रवेश द्वार उमराव पुल के पास आमनेर, मुस्का और पिपरिया नदियाँ त्रिवेणी संगम बनाती हैं।
खैरागढ़ का मुख्य आकर्षण इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय है। भव्य महल में क्लास और आर्ट गैलरी को देखना अपने आप में एक रोमांचक अनुभव है।
यह भी संभव है कि किसी खूबसूरत पेंटिंग में डूबी छात्राएं, मूर्ति बनाते छात्राएं और बैकग्राउंड से आती संगीत की ध्वनितरंगें पहली बार यहां आने वाले व्यक्ति के मन में कला चेतना को जागृत कर देती है।
विश्वविद्यालय के उद्घाटन के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी ने कहा था, 'यह सच है कि सभी लोग संगीतकार नहीं बन सकते, लेकिन यह नितांत आवश्यक है कि हर कोई संगीत को अपने जीवन का हिस्सा माने।
01. इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय
खैरागढ़ का इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय एशिया के उन कुछ संस्थानों में से एक है जो पूरी तरह से संगीत और कला के लिए समर्पित है।
यह एशिया का पहला ऐसा संस्थान है, जिसकी स्थापना कला और संगीत में उच्च शिक्षा प्रदान करने के लिए की गई थी।
देश में संगीत के क्षेत्र में उच्च शिक्षा प्रदान करने वाले कुछ विश्वविद्यालयों में से एक, यह विश्वविद्यालय अपने आसपास के दिलचस्प इतिहास और कलात्मक उपस्थिति को समेटे हुए है। यह हमारे देश की सांस्कृतिक विरासत का ध्वजवाहक भी है।
दरअसल, खैरागढ़ आजादी से पहले एक छोटी सी स्वतंत्र रियासत हुआ करती था, जहां के राजा वीरेंद्र बहादुर सिंह और रानी पद्मावती की बेटी इंदिरा को संगीत का शौक था।
बचपन में ही राजकुमारी की मृत्यु के बाद उनके माता-पिता ने उनके शौक को शिक्षा का रूप देकर अमर बना दिया।
शुरुआत में यह संस्था इंदिरा संगीत महाविद्यालय के नाम से मात्र दो कमरों के भवन में शुरू की गई थी, जिसमें 4-6 छात्र और तीन शिक्षक हुआ करते थे।
इस संस्था के बढ़ते प्रभाव और छात्रों की संख्या में लगातार वृद्धि के कारण, रानी ने इसे एक अकादमी में बदलने का फैसला किया और तब से यह संस्था इंदिरा संगीत अकादमी के नाम से जानी जाने लगी।
इसके साथ ही एक बड़े भवन की भी व्यवस्था की गई जिसमें कमरों की संख्या अधिक थी। धीरे-धीरे समय के साथ संगीत के इस मंदिर का प्रभाव बढ़ता गया।
इसी बीच वीरेन्द्र बहादुर सिंह और रानी पद्मावती को राज्य और सरकार में मंत्री बनाया गया। तब उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री पं. रविशंकर शुक्ल के सामने इसे विश्वविद्यालय के रूप में स्थापित करने का प्रस्ताव रखा।
जिसे पं. रविशंकर शुक्ल ने स्वीकार कर लिया और तमाम औपचारिकताओं के बाद 14 अक्टूबर 1956 को राजकुमारी इंदिरा के जन्मदिन पर इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय की औपचारिक स्थापना की।
इसका उद्घाटन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने किया था और श्री कृष्ण नारायण रतनजंकर को विश्वविद्यालय के पहले कुलपति के रूप में नियुक्त किया गया था।
ललित कला के क्षेत्र में यह एक अनूठा प्रयास था। राजा वीरेंद्र और रानी पद्मावती ने इस विश्वविद्यालय के लिए अपना महल "कमल विलास पैलेस" को दान कर दिया था।
यह विश्वविद्यालय आज भी इसी भवन में संचालित हो रहा है। यहां ललित कलाओं के अंतर्गत गायन, वादन, नृत्य, नाटक और दृश्य कलाओं की विधिवत शिक्षा दी जाती है।
इनके अलावा हिंदी, साहित्य, अंग्रेजी साहित्य और संस्कृत साहित्य विषय भी अध्ययन के लिए उपलब्ध हैं।
प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग भी इस विश्वविद्यालय का एक महत्वपूर्ण विभाग होने के साथ-साथ एक संग्रहालय भी है, जिसमें विभिन्न कालखंडों की मूर्तियां एवं सिक्के संग्रहित कर प्रदर्शन हेतु रखे गये हैं।
मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के सभी ललित कला महाविद्यालय इससे संबद्ध हैं। वर्तमान में भारत के 46 कॉलेज इस विश्वविद्यालय से संबद्ध हैं।
विश्वविद्यालय के शैक्षणिक परिसर में लोक संगीत, तबला, गायन, नृत्य, चित्रकला, साहित्य, भारतीय कला इतिहास और संस्कृति आदि के विभाग हैं। तबला, पखावज और मृदंगम को विशेष विषयों के अंतर्गत वादन के क्षेत्र में सिखाया जाता है और द्रुपद, ठुमरी और गायन के क्षेत्र में दादरा सिखाया जाता है।
विभिन्न पारंपरिक और लोक संगीत वाद्ययंत्रों से सजी गैलरी इस विश्वविद्यालय का मुख्य आकर्षण है। इसके अलावा भारत की पारंपरिक और आधुनिक चित्रकला, लोक चित्रकला से सजी गैलरी और पुरातात्विक संग्रह इस विश्वविद्यालय के अन्य आकर्षण हैं।
यहां एक विशाल पुस्तकालय भी है, जिसमें 43 हजार पुस्तकों का संग्रह है।
यहां आने वाले छात्रों के अलावा भारत के विभिन्न राज्यों और श्रीलंका, थाईलैंड, अफगानिस्तान आदि देशों से भी बड़ी संख्या में छात्र हर साल संगीत की शिक्षा लेने आते हैं।
इसके साथ ही संस्कृति मंत्रालय के सहयोग से विश्वविद्यालय द्वारा समय-समय पर राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार, कार्यशालाएं, सांस्कृतिक कार्यक्रम आदि का आयोजन किया जाता रहा है, जिसमें देश-विदेश के प्रख्यात कलाकार, विद्वान, विषय विशेषज्ञ एवं संगीतकार हिस्सा लेते हैं।
इंदिरा कला एवं संगीत विश्वविद्यालय ने पंडित रविशंकर (सितार), रुक्मणि देवी अरुंडोल (नृत्य), लता मंगेशकर (गायन), एम.एस. सुब्बलक्ष्मी (कर्नाटक संगीत), पुपुल जयकर आदि को मानद डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया गया है।
02. राधा-कृष्ण मन्दिर
राजमहल परिसर में स्थापित इस रियासतकालीन मंदिर को भीतरी मंदिर भी कहा जाता है। यह राजपरिवार का निजी मंदिर था। इसकी देखभाल वह स्वयं करते थे।
इसका निर्माण करीब 150 साल पहले तत्कालीन रियासत ने कराया था। राजमहल, विश्वविद्यालय को दान दिये जाने के बाद यह मंदिर विश्वविद्यालय के अधीन आ गया।
03. रूखड़ स्वामी मन्दिर
खैरागढ़ स्थित संत रूखड़ स्वामी मंदिर एक प्राचीन मंदिर है।
इसका निर्माण राजा टिकैत राय ने करवाया था। वे संत रूखड़ स्वामी को अपना गुरु मानते थे।
ऐसा माना जाता है कि संत रूखड़ स्वामी के आशीर्वाद के कारण ही राजा टिकैत राय अपने राज्य को दुश्मनों से बचाने में सक्षम थे।
शिवरात्रि के अवसर पर यहां स्थापित छोटे शिव मंदिर से भगवान शिव की बारात वीरेश्वर मंदिर तक पहुंचती है।
04. दंतेश्वरी माई
खैरागढ़ में दंतेश्वरी देवी की लकड़ी की प्रतिमा स्थापित है, जो खैरागढ़ राजपरिवार की कुलदेवी हैं। इसके अलावा खैरागढ़ में वीरेश्वर महादेव मंदिर और महामाया मंदिर भी दर्शनीय हैं।
05. पंचवन, मदिराकुही
खैरागढ़ से 8 कि.मी. सुदूर ग्राम मदिराकुही में वन मंडल खैरागढ़ के सहयोग से लगभग 20 एकड़ क्षेत्र में सुंदर पंचवन विकसित किया गया है।
यहां शीशम, आंवला, नीम, बांस, करंज के पौधों के रोपण के साथ-साथ फलदार वृक्ष भी लगाये गये।
राजस्व भूमि पर स्थापित इस पंचवन की सुरक्षा की जिम्मेदारी गांव की वन प्रबंधन समिति की है।
पौधों की सुरक्षा के लिए 20 एकड़ के बगीचे के चारों ओर फेंसिंग तार का घेरा लगाया गया है।
इस पंचवन को वनस्पति उद्यान बनाने के लिए 70 प्रजातियों के पौधे लगाए गए हैं। इसे पिकनिक स्पॉट के रूप में विकसित किया जा रहा है।
06. जगन्नाथ मन्दिर, पांडादाह
खैरागढ़ तहसील में स्थित पांडादाह रियासतकाल में राजनांदगांव रियासत की राजधानी थी।
यहां पर जगन्नाथपुरी की शैली में बना जगन्नाथ मंदिर अत्यंत दर्शनीय है। इस मंदिर का निर्माण 1707 में भोंसले राजाओं के शासनकाल के दौरान किया गया था।
कहा जाता है कि भोंसले राजा ने इस मंदिर का निर्माण जगन्नाथपुरी से पांडादाह पहुंचे महंतों के अनुरोध पर करवाया था।
प्रारंभ में यहां रथयात्रा की परंपरा थी। लेकिन, एक बार रथयात्रा के दूसरे दिन ही राजा की मृत्यु हो गई। तभी से भगवान जगन्नाथ को कंधे पर बैठाकर यात्रा की जाती है।
पांडादाह से सिद्धेश्वर काली माई का मंदिर लगभग 2 किलोमीटर की दूरी पर पहाड़ की चोटी पर गुफा में स्थित है।
पांडादाह से 10 किलोमीटर की दूरी पर ग्राम सांकरा में पहाड़ की चोटी पर महामाया देवी का मंदिर है। और देवरी भरतपुर के पर्वत शिखर पर बलौदा पथ मंदिर स्थापित है।