
जिला मुख्यालय से लगभग 52 किमी दूर स्थित गिरौदपुरी छत्तीसगढ़ के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है।
गुरु घासीदास का जन्म सोमवार, माघ पूर्णिमा, 18 दिसम्बर, 1756 को महानदी के तट पर स्थित पवित्र ग्राम गिरौदपुरी में हुआ था, जो आगे चलकर संत घासीदास के नाम से प्रसिद्ध हुए।
गुरु घासीदास छत्तीसगढ़ में सामाजिक क्रांति के प्रथम अग्रदूत और सतनामी संप्रदाय के प्रणेता हैं। इसके अलावा गिरौदपुरी अनोखे जैतखंभ के लिए भी प्रसिद्ध है।
गुरु घासीदास खेल-खेल में दोस्त बने बच्चों को शिक्षा देते थे और कठिन से कठिन परिस्थिति में भी उन्हें विपरीत परिस्थितियों से बाहर निकालने का सरल उपाय ढूंढते थे।
उनका विवाह सिरपुर निवासी अंजोरी दास तथा सत्यवती की सुन्दर, सुशील पुत्री सफूरा से हुआ था। वह मराठा और अंग्रेजी शासन का संधि काल था। अत: तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों का उनके मन पर गहरा प्रभाव पड़ा।
एक दिन वह वन में चला गया और तपस्या में लीन हो गया। यहीं पर उन्हें सतनाम का ज्ञान प्राप्त हुआ। सतनाम का ज्ञान प्राप्त करने के बाद वे अपने घर गिरौदपुरी लौट आये।
01. गुरू निवास
संत गुरु घासीदास का निवास स्थान गिरौदपुरी में है, जहां एक प्राचीन जैत स्तंभ है और पास में ही गुरुजी की गद्दी बनी हुई है।
02. तपोभूमि
गुरु घासीदास जी ने गिरौदपुरी से 2 किमी पूर्व में एक पहाड़ी पर औंरा, धौंरा और तेंदू पेड़ों के नीचे ध्यान लगाया, जहां उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई।
इसीलिए इस स्थान को तपोभूमि के नाम से जाना जाता है। प्रत्येक वर्ष इस स्थान पर फाल्गुन शुक्ल पंचमी से सप्तमी तक मेला लगता है।
03. चरणकुंड
मुख्य गुरु गद्दी तपोभूमि से दक्षिण दिशा में पहाड़ी के नीचे एक कुंड है, जिसे 'चरणकुंड' कहा जाता है।
तपस्या के बाद जब बाबा को 'सतनाम' का ज्ञान हुआ तो उसके बाद उन्होंने यहीं अपने पैर धोए थे।
मान्यता है कि इस कुंड का पवित्र जल पीने से कष्टों और रोगों से मुक्ति मिल जाती है।
04. अमृत कुंड
चरणकुंड से 100 मीटर आगे अमृत कुंड स्थित है।
ऐसा माना जाता है कि बाबा ने जीव-जंतुओं और जंगली जानवरों की पीड़ा दूर करने के लिए अपनी अलौकिक शक्ति से यहां 'अमृत जल' प्रकट किया था।
इस कुंड का अमृत जल वर्षों तक रखने पर खराब नहीं होता है और इसे पीने से सभी कष्ट दूर हो जाते हैं।
05. चरण चिह्न स्थल
इस स्थान पर सतगुरु बाबा के दोनों चरणों का चिन्ह एक चट्टान पर इस प्रकार बना हुआ है जैसे वह गीली मिट्टी पर बना हो।
06. बाघ पंजा स्थल
यहां स्थित एक चट्टान पर बाघ के पंजे का निशान है।
ऐसा माना जाता है कि सतपुरुष साहेब बाबाजी की परीक्षा लेने के लिए बाघ का रूप धारण करके आए थे, जिसका चिन्ह एक पत्थर पर बना हुआ है।
07. छाता पहाड़
तपोभूमि से लगभग 6 किलोमीटर पूर्व में स्थित पहाड़ी की ढलान पर एक विशाल चट्टान है, जिसे छाता पहाड़ या छाता पथरा कहा जाता है।
गुरु घासीदास ने इसी पर्वत की एक चट्टान पर बैठकर 6 माह तक तपस्या की थी। यहां 5 अलग-अलग तालाब बने हुए हैं, जिन्हें पंचकुंडी कहा जाता है।
08. सफुरा मठ एवं तालाब
गुरु घासीदास की जन्मस्थली से लगभग 200 गज पूर्व में एक छोटा सा तालाब है, जिसके निकट उत्तर दिशा में गुरु घासीदास जी की पत्नी सफ़राजी का मठ है।
इस मठ के बारे में एक किंवदंती है कि घासीदास के बड़े पुत्र अमरदास के जंगल में खो जाने के बाद माता सफुरा ने यहां समाधि स्थापित की थी।
लोगों ने उन्हें मृत समझकर गुरु की अनुपस्थिति में ही दफना दिया था। समाधि समाप्त होने के बाद गुरु ने माता सफूरा को पुनर्जीवित कर दिया। उसी घटना की याद में यह मठ बनाया गया है। इस स्थान पर बहुत बड़ा मेला लगता है।
09. बछिया जीवनदान स्थल
गिरौदपुरी गांव के बगल में 'बछिया जीवनदान स्मारक' बनाया गया है। सफूरा को जीवित करने से पहले लोगों के कहने पर गुरु बाबा ने इसी स्थान पर मृत बछिया को जीवित किया था।
10. बहेरा डोली
गिरौदपुरी गांव पहुंचने से पहले नहरपार से 1 किमी पश्चिम की ओर 'बहेरा डोली' खेत है।
ऐसा माना जाता है कि यहीं पर बाबाजी ने एक बेकार और गरीब बैल से हल को आधा जुतवाया था और इस खेत में 5 कट्ठा धान बोकर फसल प्राप्त की थी।
उन्होंने अपनी शक्ति से खेत की 'चटिया-मटिया' जैसी असाध्य बीमारी को दूर कर दिया था। इसलिए इसे 'मटिया डोली' भी कहा जाता है।
11. जैतखम्भ
गिरौदपुरी धाम कुतुबमीनार से भी ऊंचे जैतखंभ के लिए भी प्रसिद्ध है।
यह कई मायनों में अनोखा है. 52 करोड़ रुपये की लागत से बने जैतखंभ की ऊंचाई 77 मीटर है, जो कुतुब मीनार की ऊंचाई से करीब 7 मीटर ज्यादा है। इसका आधार व्यास 600 मीटर है।
इस विशाल स्तंभ की असाधारण ऊंचाई को ध्यान में रखते हुए इसके डिजाइन को भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) रूड़की के तकनीकी विशेषज्ञों ने मंजूरी दे दी है। यह वायुदाब एवं भूकंपरोधी है। इसमें आग और आकाशीय बिजली से सुरक्षा के लिए उच्च स्तरीय तकनीकी प्रावधान भी किये जा रहे हैं।
इसके आधार तल पर एक विशाल सभागृह का निर्माण किया गया है जिसमें 2 हजार लोगों के बैठने की व्यवस्था है। इसमें पहली मंजिल से आखिरी मंजिल तक 7 बरामदे हैं।
इसमें प्रवेश करते ही आसपास का खूबसूरत नजारा दिखाई देता है। सबसे ऊपरी बालकनी में लगभग 200 लोगों के एक साथ खड़े होने की जगह है और पूजा की भी सुविधा है।
छत पर जाने के लिए दो तरफ से प्रवेश द्वार और सीढ़ियाँ बनाई गई हैं। दोनों तरफ 435-435 सीढ़ियाँ हैं। दोनों सीढ़ियाँ इस तरह से बनाई गई हैं कि वे एक जैसी दिखती हैं। अलग-अलग चलने पर भी ऐसा आभास होता है कि लोग एक साथ चल रहे हैं।
दोनों सीढ़ियाँ एक दूसरे के ऊपर दिखाई दे रही हैं। दूसरी तरफ चलने वाले लोगों को लगता है कि वे पास चल रहे लोगों से घुल-मिल सकते हैं, लेकिन जहां छत खत्म होती है, वहां लोगों से मिलना संभव होता है।
जयपुर के जंतर मंतर और लखनऊ की भूल भुलैया में भी सीढ़ियों के ऐसे ही पैटर्न का इस्तेमाल किया गया है। चंद्रमा की दूधिया रोशनी में इस मीनार की भव्यता देखते ही बनती है।