
छत्तीसगढ़ के लोकगीत : सांस्कृतिक विविधताओं से परिपूर्ण छत्तीसगढ़ के लोक जीवन में संगीत प्राण वायु की तरह रचा-बसा है। वनवासियों के लोकगीतों तथा वाद्ययंत्रों से मानो प्रकृति स्वाभाविक रूप से अभिव्यक्त होती है। यहाँ की मूल संस्कृति में ही एक सुरीलापन है। मूल निवासियों में शायद ही कोई ऐसा हो, जो समूह गायन के दौरान चुप्पी साध लेता हो अथवा किसी के कदमों में थिरकन का अभाव हो । वे मात्राएं गिनना नहीं जानते मगर बे ताल नहीं होते, सरगम का ज्ञान नहीं मगर बेसुरे नहीं होते ।
यहाँ गाए जाने वाले लोकगीतों में विविधता होती है। वे आकार में छोटे तथा सरल होते हैं। यहां सुआगीत, बांस गीत, फाग, ददरिया, डण्डा गीत, करमा, चनौनी, राउत गीत गाने का चलन है। इनमें सुआ गीत, डण्डा, करमा तथा पंथी गीत नृत्य के साथ गाए जाते हैं।
01. पण्डवानी
पण्डवानी छत्तीसगढ़ की वह एकल नाट्यकला है, जिसका अर्थ है पाण्डववाणी- अर्थात पाण्डव कथा, दूसरे शब्दों में, यह महाभारत की कथा है। यह शैली परधान तथा देवार जातियों में प्रचलित है। परधान गोण्डों की एक उपजाति है और देवार घुमंतु जाति है। इन दोनों जातियों की बोली तथा वाद्यों में अन्तर है।
परधान जाति के कथा वाचक या वाचिका के हाथ में 'किंकनी' होता है और देवारों के हाथों में रूंझू होता है। पण्डवानी करने के लिए किसी त्यौहार या पर्व की जरुरत नहीं होती है। यह कभी भी, कहीं भी आयोजित किया जा सकता है। कभी-कभी कई रातों तक यह लगातार चलती रहती है।
वर्तमान में पण्डवानी गायक-गायिका तम्बूरे को हाथ में लेकर मंच पर घूमते हुए कहानी प्रस्तुत करते हैं। यही तम्बूरा कभी भीम की गदा तो कभी अर्जुन का धनुष बन जाता है। संगत के कलाकार पीछे अर्ध चन्द्राकर में बैठते हैं।
उनमें से एक 'रागी' होता है जो हुंकारा भरते हुए गाता है, तथा रोचक प्रश्नों के द्वारा कथा को आगे बढ़ाने में मदद करता है। पण्डवानी की दो शैलियाँ हैं- कापालिक और वेदमती । कापालिक शैली का अर्थ है, जो गायक गायिका के स्मृति में या 'कपाल' में विद्यमान है। तीजन बाई कापालिक शैली की विख्यात गायिका हैं।
इसके अतिरिक्त शांतिबाई चेलकने, उषा बाई बारले तथा ऋतु वर्मा भी इस शैली की प्रसिद्ध गायिका हैं। वेदमती शैली का आधार शास्त्र है। कापालिक शैली वाचक परम्परा पर आधारित और वेदमती शैली खड़ी भाषा पर आधारित है। वेदमती शैली के गायक-गायिका वीरासन पर बैठकर गायन करते है।
श्री झाडूराम देवांगन, जिनके बारे में निरंजन महावर का वक्तव्य है, कि 'महाभारत के शांति पर्व को प्रस्तुत करनेवाले नि:संदेह वे सर्वश्रेष्ठ कलाकार हैं।' दूसरी तरफ, पुनाराम निषाद तथा पंचूराम रेवाराम वेदमती शैली के प्रमुख पुरुष कलाकार हैं। इस शैली की महिला कलाकारों में लक्ष्मी बाई का नाम प्रमुखता से लिया जाता है।
02. सुआ गीत
यह करूण गीत-नृत्य मिश्रित कला है। इस नृत्य को सुवना नृत्य के नाम से भी जाना जाता है। यह मुख्यत: गोर तथा डिंडवा आदिवासी स्त्रियों का नृत्य है। डिंडवा जाति में विवाह के अवसर पर, रात के समय यह नृत्य किया जाता है। दिवाली से प्रारम्भ होकर अगहन की पूर्णिमा तक भी निरंतर होने वाले इस नृत्य में स्त्रियों का दो दल होता है। दोनों दल गोल घेरा बनाकर खड़े हो जाते हैं। मध्य में बांस की टोकरी में रखे धान के ऊपर मिट्टी से बने दो सुग्गे रखे जाते हैं।
दोनों दल आपस में ताली बजाते हुए गीत के माध्यम से संवाद करते है, जिसमें नारी ह्रदय की अनेक कोमल भावनाएं अभिव्यक्त होती हैं। इसमें किसी वाद्य यंत्र की जरूरत नहीं होती है। ताली, चूड़ी की खन-खन, पैरों की झुनकी ही इनके लिए ताल वाद्य का काम करती हैं। इसमें गाए जाने वाले अनेक गीतों के बोल में स्त्री खुद को सुए (तोते) की तरह पिंजरे में कैद पाती है।
उदाहरण के लिए:
तरि नारी ना SS ना SS मोर
तारि नारि ना SS ना SS गा SS
ओ SS सुआ न SS
तिरिया जनम झन देबे
तिरिया जनम मोर गऊ को बरोबर
गऊ के बरोबर
रे सु आना SSS
तिरिया जनम झन देबे SSS
सती सु लोचना SSS रोवथे ओ SSS
तरिया तीर SSS
br>तरिया तीरे SSS
तिरिया जनम झनि देबे
ओ सु आना SS
03. करमा गीत
यह सतपुड़ा तथा विंध्य पर्वत श्रेणी के बीच स्थित ग्रामों में प्रचलित प्रसिद्ध गीत-नृत्य शैली है। इसमें संगीत योजना अत्यंत समृद्ध होती है। करम देवता को प्रसन्न करने के लिए सामूहिक रूप से आदिवासी स्त्री-पुरुष यह नृत्य करते हैं। करमा गीत मांदर बजाकर गाया जाता है।
प्रारम्भ में इसमें कुछ ही लोग होते हैं लेकिन मांदर की आवाज सुनकर आस-पास के लोग भी इसमें शामिल हो जाते हैं। करमा नृत्य के मुख्यतः चार रूप हैं-करमा खरी, करमा खाय, करमा झुलनी और करमा हलकी। पदों में ईश्वर स्तुति से लेकर श्रृंगार प्रधान गीत होते हैं। इसके लय की उठान अद्भुत होती है।
करमा गीत-नृत्य के सम्बंध में मान्यता है, कि इसके द्वारा करम देवता (भाग्य देवता) की पूजा-अर्चना की जाती है। जनश्रुति के अनुसार प्राचीन काल में कमरसेन नामक एक राजा था। उसके राज्य में विपत्ति आ गई। राजा ने हिम्मत नहीं हारी। उसने भगवान से मन्नत मांगी और उनके समक्ष नृत्य किया, गीत गाया। धीरे-धीरे उसकी सारी समस्याएँ. दूर हो गईं। उसी समय से उस गीत तथा नृत्य को राजा के नाम से जाना जाने लगा।
करमा नृत्य-संगीत बिहार तथा उड़ीसा में भी प्रचलित है। इसमें बड़े सुंदर-सुंदर सम्बोधनों का इस्तेमाल होता है। एक दूसरे का नाम न लेकर स्नेहयुक्त अन्य शब्दों से संबोधित किया जाता है। उदाहरण के लिए निम्नांकित गीत में गोलंदा जोड़ा सम्बोधन का बड़ा ही सुंदर प्रयोग है।
उदाहरण के लिए:
चलो नाचे जाबा रे गोलेंदा जोड़ा
करमा तिहार आये है, नाचे जाबो रे।
पहली मैं सुमिरौं सरस्वती माई रे
पाछू गौरी गणेश-रे गोलेंदा जोड़ा ... ।।
गांव के देवी देवता के पईया लगारे
गोड़ लागौ गुरुदेव के रे गोलेंदा जोड़ा ... ।।
04. सरहुल गीत
यह छत्तीसगढ़ के सरगुजा, जशपुर तथा धर्मजयगढ़ में बसने वाले उरांव जाति के लोगों का धार्मिक त्योहार है, जिसमें साल वृक्ष की पूजा होती है। इस अवसर पर एक विशेष नृत्य किया जाता है, जो सरहुल नृत्य के नाम से प्रसिद्ध है ।
आदिवासियों के मध्य एक प्राचीन अवधारणा है, कि साल वृक्षों में महादेव का वास होता है। इसे स्थानीय बोली में सरना कहा जाता है। महादेव व देव-पितरों को प्रसन्न करने के लिए चैत्र पूर्णिमा की रात्रि में आयोजित उत्सव में यह नृत्य किया जाता है, जो प्रारम्भ में धार्मिक भावना को अभिव्यक्त करती है।
जैसे-जैसे रात ढलती है, यह नृत्य मादक होता चला जाता है। इसे प्रकृति पूजा का एक रूप माना जाता है। इसमें टोटके के तौर पर किसी ऊँचे स्थल या चबूतरे पर एक झण्डा गाड़ा जाता है, जिसके चारों ओर आदिवासी युवक-युवतियाँ यह सामूहिक नृत्य करते हैं।
05. डोमकच गीत
इस नृत्य का आयोजन अगहन से आषाढ़ तक किया जाता है जो । नृत्य रात भर चलता है। कई समाजशास्त्री इसे विवाह नृत्य भी कहते हैं। इस नृत्य का आधार विलम्बित लय में गाया जाने वाला एक गीत है। नृत्य में एक युवक तथा एक युवती का क्रम रहता है, जो एक लय और एक ताल पर आगे पीछे झुकते हुए नाचते हैं। वाद्ययंत्रों में मांदर, झांझ, मजीरा तथा टिमकी आदि का उपयोग किया जाता है। नृत्य करते है।
06. गौरा नृत्य
ये छत्तीसगढ़ की माड़िया जनजाति का प्रसिद्ध लोकनृत्य है। नयी फसल पकते समय गौर नामक पशु के सींग को कौड़ियों से सजाकर उसे अपने सर पर धारण करते हैं, तथा अत्यंत आकर्षक व प्रसन्नचित्त मुद्रा में नृत्य करते है।
07. मांदरी नृत्य
मांदरी नृत्य घोटुल का प्रमुख नृत्य है। इसमें मांदर की करताल पर नृत्य किया जाता है, जिसमें पुरुष नर्तक हिस्सा लेते हैं। एक अन्य प्रकार के मांदरी नृत्य में चिटकुल के साथ युवतियां भी हिस्सा लेती हैं। गोटुल की परम्परा में कम से कम एक चक्कर मांदरी नृत्य अवश्य किया जाता है। इस नृत्य में शामिल हर व्यक्ति कम से कम एक थाप के संयोजन को प्रस्तुत करता है, जिस पर पूरा समूह नृत्य करता है।।
08. गेंड़ी नृत्य
यह मुड़िया जनजाति का प्रिय नृत्य है जिसमें पुरुष लकड़ी की बनी हुई ऊँची गेंड़ी पर चढ़कर तेज गति से नृत्य करते है। इस नृत्य में शारीरिक कौशल व संतुलन साधने की प्रतिभा प्रदर्शित होती है।
09. डण्डा नृत्य
यह पुरूष प्रधान नृत्य शैली है। इसे शैला नृत्य भी कहा जाता है। इसमे ताल का अत्यधिक महत्व होता है जो मुख्यत: डण्डे की चोट से उत्पन्न होता है। यह छत्तीसगढ़ के रास के नाम से भी प्रसिद्ध है। मैदानी क्षेत्रों में इसे डण्डा नृत्य तथा पर्वतीय क्षेत्रों में शैला नृत्य कहा जाता है। इस नृत्य में कम से कम चार तथा अधिकतम पचास नर्तक होते हैं। इनका सम संख्या में होना आवश्यक है।
नर्तक गेंदे की माला से सज्जित पगड़ी पहनते हैं जिसमें मोरपंख टंका होता है। सभी नर्तक कृष्ण का वेष धरते हैं। इसमें मुख्य गायक कुहकी देने वाला, एक मृदंग वाला तथा दो-तीन झांझ बजाने वाला होते हैं। डण्डे की समवेत ध्वनि नर्तकों की गति तथा गीत के बोल से एक आनंदयुक्त विस्मय का बोध होता है। यह नृत्य कार्तिक से फागुन तक चलता रहता है।
10. बांस गीत
यह छत्तीसगढ़ की यादव जातियों द्वारा बांस से बने हुए वाद्य यन्त्र के साथ गाये जाने वाला लोकगीत है। बांस गीत में मुख्यतः चार लोगों की भूमिका होती है। प्रथम बांस निर्मित वाद्य यंत्र बजाने वाला बंसकहार, दूसरा गायक, तीसरा गायक का साथ देने वाला रागी तथा चौथा टेहीकार जो गीत की समाप्ति पर रामजी-रामजी का उद्घोष करता है। टेहीकार विशेष प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति होता है। वह लोकोक्ति, दोहों, तथा मुहावरों एवं स्वरचित पदों को पिरोकर श्रोताओं को मुग्ध कर देता है।
11. ककसाड़
यह अबूझमाड़ के माड़ियों के मध्य प्रचलित महान नृत्य शैली है। ककसाड़ का अर्थ देवक्रीड़ा होता है, जिसे देवता खेलाना कहते हैं। नगाड़ों की ध्वनि के साथ देवता खेलाने का कार्य प्रारंभ होता है। महिलाएं नृत्य करती हैं एवं युवा ढोल बजाते हुए कदमों पर थिरकते हैं तथा इनके बीच देवता खेलते हैं। सिरहों पर देवताओं की सवारी आ जाती है। यह कार्य रात तक चलता है। इस शैली के दो पक्ष हैं। प्रथम गोत्र पूजा द्वितीय समुदाय के लिए मंगल कामना हेतु देवताओं से याचना। इस नृत्य के पश्चात पति-पत्नी संसर्ग, साथी का चुनाव, गोत्र पूजा हेतु स्थलों का चुनाव आदि की प्रक्रिया पूरी की जाती है।
12. राउत नाचा
छत्तीसगढ़ के लोकनृत्यों में राउत नाचा का विशेष महत्व है। इस नाचा में बड़ों के साथ बच्चे भी सम्मिलित होते हैं। राउत नाचा प्रतिवर्ष कार्तिक माह में देवउठनी एकादशी से पूरे छत्तीसगढ़ में प्रारम्भ होता है । यह वह समय होता है जब फसल कट जाने के बाद लोग पूरी तरह फुरसत में होते हैं। इसके वाद्ययंत्रों में गड़वा बाजा प्रमुख है।
इस नृत्य में नर्तक तथा वादक दल चेहरे पर पीला रंग, गालों पर चमकी, काजल, माथे पर चंदन, साफा या पगड़ी के ऊपर कागज के फूल तथा मोर पंख लगाते हैं। लाल-पीले कुर्तों पर जाकिट के साथ उस पर मोती तथा कौड़ियों की झालर लगाई जाती है। गीतों के बोल में वीर रस की प्रधानता होती है। इसमें तत्काल दोहे बनाए जाते हैं, जिनमें ऐतिहासिक, पौराणिक से लेकर तत्कालीन सामाजिक व राजनीतिक विसंगतियों पर कटाक्ष होता है।
उदाहरण के लिए -
अरे रे SS रे SS भई SS रे SS भई रे SS
कन्हैया के गांव मां आगी लगगे
राजा कहां तोर गोलियार ?
बलवव कंस ला ठेंगा मार के
कहां हे तोर तरवार ?
इसमें नर्तक एक हाथ में ढाल तथा दूसरे में लाठी थामकर नृत्य करते हैं। इस नृत्य के तीन भाग होते हैं-
प्रथम भाग (सुहाई बांधना): राउत जाति का मुख्य व्यवसाय गौ पालन है। इसलिए वे अपने मालिकों के घर जाकर उनकी गायों में सुहाई बांधकर उनके लिए मंगल कामना करते हैं। उसके बाद यह नृत्य प्रारंभ होता है।
द्वितीय भाग (मातर): राउत एकादशी के दिन देव पितर की पूजा करते हैं। फिर मुखिया के घर आकर वहां गांजा-दारू चढ़ाने के बाद गड़वा बाजा लेकर नाचते हुए निकल जाते हैं।
तृतीय भाग (काछन): काछन चढ़ने पर नर्तक दोहा गाते हैं। काछन उनके देवता चढ़ने का प्रतीक है। राउत नाचा का विशेष आयोजन बिलासपुर में किया जाता है, दूरदर्शन से प्रसारित होने के बाद इस नृत्य की ख्याति देश भर में फैल गई। इसके अलावा चांपा, सक्ती, जांजगीर, देवरहट आदि स्थानों पर भी इसका आयोजन होता है।
13. देवार गीत
यह गीत छत्तीसगढ़ के घुमंतु देवार जाति के लोग गाते हैं। इनके गीतों में मिठास तथा स्वर में जादुई प्रभाव होता है। देवार जाति के सम्बंध में जनश्रुति है कि इस जाति के लोग गोण्ड राजाओं के दरबार में गाया करते थे। किसी भूलवश इन्हें राजा ने निकाल दिया, तब से इन्होंने घुमंतु जीवन अपना लिया है। इनके गीतों में संघर्ष, आनंद, प्रेम तथा प्रकृति सभी का मिश्रित भाव देखा जा सकता है।
14. जसगीत
छत्तीसगढ़ में देवी आदिशक्ति शौर्य की प्रतीक मानी जाती हैँ। जसगीत मुख्यतः देवी शक्ति की आराधना के लिये ओजपूर्ण स्वर मे पारम्परिक वाद्य यन्त्रों के साथ गाये जाने वाला गीत है। दरअसल यह 'यश गीत' का अपभ्रंश है। छत्तीसगढ़ में पारम्परिक रूप में गाये जाने वाले लोकगीतों में जसगीत का अहम स्थान है। यह लोकगीत मुख्यत: क्वांर व चैत्र नवरात्र में नौ दिन तक गाया जाता है।
प्राचीन काल में जब चेचक एक महामारी के रूप में पूरे गांव में छा जाती थी तब, गांवों में चेचक प्रभावित व्यक्ति के घर में इसे गाया जाता था। मांदर, झांझ व मंजीरे के साथ गाया जाने वाला यह गीत अपने स्वरों के उतार-चढ़ाव में ऐसी उत्तेजना उत्पन्न करता है, कि भाव विभोर होकर लोग देवी को प्रसन्न करने के लिए लोहे के बने नुकीले लम्बे तारों से अपने जीभ, गाल व हाथ छेद लेते हैं ।
15. ददरिया
यह श्रम की साधना और प्रकृति की आराधना में रत किसानों और श्रमिकों का गीत है। यह प्रेम और अनुराग की लोक अभिव्यक्ति है। ददरिया में वाद्य का प्रयोग नहीं होता। जानकार लोगों ने ददरिया के चार भेदों का भी निरूपण किया है। ठाढ़ ददरिया, सामान्य ददरिया, साल्हों और गढ़हा ददरिया। बैल-गाड़ी हांकते गाड़ीवानों द्वारा गाये जाने वाले को गढ़हा ददरिया कहा जाता है।
शायद इसीलिए साल वनों में गाये जाने वाले ददरिया को साल्हो भी कहा गया हो। ठाढ़ ददरिया और सामान्य ददरिया को खेतों में काम करते किसानों से सुना जा सकता है। इसके अलावा करमा ददरिया, टेही ददरिया आदी शैलियाँ भी प्रचलित हैं पारम्परिक रूप में ददरिया खेतों में फसलों की निंदाई- कटाई करते, जंगल पहाड़ में श्रम में संलग्न लोगों द्वारा गाया जाता है। इसकी स्वर लहरी सम्मोहक होती है।
उदाहरण के लिए
बटकी मा बासी, अऊ चुटकी का नून।
मैं गावत हंव ददरिया, तैं कान देके सुन।
16. भोजली गीत
भोजली गीत छत्तीसगढ़ की पहचान है। छत्तीसगढ़ में स्त्रियाँ धान, गेहूँ, जौ या उड़द के थोड़े दाने को एक टोकनी में बोती है। उस टोकनी में खाद मिट्टी पहले रखकर सावन शुक्ल नवमीं को बो देती है। जब पौधे उगते है, उसे भोजली देवी कहा जाता है, जिसके पास बैठकर वे गीत गाती हैं।
इस मौसम में गांव के हर कोने से भोजली गीत की आवाज सुनाई देती है। भोजली का अर्थ है भूमि में जल हो। इस गीत के माध्यम से यहीं कामना की जाती है। इसीलिये यह गीत भोजली देवी अर्थात प्रकृति देवी की आराधना है। एक भोजली में कहा गया है-
उदाहरण के लिए
पानी बिना महरी
पवन बिना धाने
सेवा बिना भोजली के
तरसे पराने।