
बस्तर अंचल में मनाए जाने वाले पारंपरिक त्योहारों में दशहरा सबसे बड़ा त्योहार है। इसकी ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई है। यह अतिश्योक्ति नहीं होगी, कि बस्तर का दशहरा, मैसूर के दशहरे जैसा ही प्रसिद्ध है। लेकिन इस दशहरे का रावण के खात्मे और राम की अयोध्या वापसी से संबंध नहीं है, बल्कि यह मां दुर्गा द्वारा महिषासुर के वध पर उत्सव के रूप में मनाया जाता है। उल्लेखनीय है कि पौराणिक मान्यताओं के अनुसार अश्विन शुक्ल की दशमी को महिषासुर का संहार हुआ था। इसीलिए यह दिन विजयादशमी कहलाता है।
बस्तर के आदिवासियों की अभूतपूर्व भागीदारी का ही प्रतिफल है कि बस्तर दशहरा की राष्ट्रीय पहचान स्थापित हुई। आदिवासियों ने इसके प्रारंभिक काल से ही बस्तर के राजाओं को हर प्रकार से सहयोग प्रदान किया। जिसका यह परिणाम निकला कि बस्तर दशहरा का विकास एक ऐसी परंपरा के रूप में हुआ जिस पर सिर्फ आदिवासी समुदाय ही नहीं समस्त छत्तीसगढ़वासी गर्व करते हैं। इस पर्व में अन्नदान, पशुदान और श्रमदान की जो परंपरा विकसित हुई उससे साबित होता है कि हमारे समाज में सामुदायिक भावना की बुनियाद कितनी मज़बूत है। भूतपूर्व बस्तर राज्य में परगनिया माझी, माँझी मुकद्दम और कोटवार आदि ग्रामीण दशहरे की व्यवस्था में समय से पहले ही मनोयोग से जुट जाया करते थे। प्रतिवर्ष दशहरा पर्व के लिए परगनिया माझी अपने-अपने परगनों से सामग्री जुटाने का प्रयत्न करते थे। सामग्री जुटाने का काम दो तीन महीने पहले से होने लगता था।
इसके लिए प्रत्येक तहसील का तहसीलदार सर्वप्रथम बिसाहा पैसा बाँट देता था, जिससे गाँव-गाँव से बकरे, सूअर, भैंसे, चावल, दाल, तेल, नमक, और मिर्च आदि बड़ी आसानी से जुटा लिए जाते थे।
सामग्री के औपचारिक मूल्य को बिसाहा पैसा कहते थे । एकत्रित सामग्री मंगनी चारडरदसराहा बोकड़ा कहलाती थी। सारी सहयोग सामग्री जगदलपुर स्थित कोठी के कोठिया को सौंप दी जाती थी। भूतपूर्व बस्तर रियासत में टेम्पल व्यवस्था के तहत पूर्णतः सार्वजनिक दशहरा मनाया जाता था। समय बदला परिस्थितियाँ बदलीं, समाज बदला और इसके साथ ही मनुष्य का जीवन भी बदला । शासन ने जन भावनाओं का सम्मान करते हुए, इसमें अपनी रचनात्मक भूमिका निर्धारित की। ऐसी भूमिका कि यह परंपरा लगातार विकसित होती रहे ।
एक जनश्रुति के अनुसार बस्तर के चालुक्य नरेश भैराजदेव के पुत्र पुरुषोत्तम देव ने एक बार श्री जगन्नाथपुरी तक पदयात्रा कर मंदिर में एक लाख स्वर्ण मुद्राएं तथा स्वर्ण आभूषण आदि सामग्री भेंट में अर्पित की थी। इस पर पुजारी को स्वप्न हुआ था। स्वप्न में जगन्नाथ जी ने राजा पुरुषोत्तम देव को रथपति घोषित करने हेतु पुजारी को आदेश दिया था। कहते हैं कि राजा पुरुषोत्तम देव जब पुरी धाम से बस्तर लौटे, तभी से गोंचा और दशहरा पवों में रथ चलाने की प्रथा चल पड़ी। राजा पुरुषोत्तम देव ने फागुन कृष्ण चार दिन सोमवार संवत 1465 को 25 वर्ष की आयु में शासन की बागडोर सँभाली थी।
01 जंतरवधि
जगदलपुर के सिरासार चौक पर स्थित एक प्राचीन प्रस्तरखण्ड है, जिसकी यहाँ के कर्मकार निवासी 387 वर्षों से पूजा कर रहे हैं। आदिवासी मान्यता के अनुसार जंतरवाही दंतेश्वरी की बड़ी बहन है। यहाँ एक विशेष रस्म होती है, जिसमें मान्यता है कि दंतेश्वरी का जन्म होता है तथा बड़ी बहन जंतरवाही द्वारा नाल काटने की रस्म होती है। इस रस्म में दशहरे में यात्रा में प्रयुक्त होने वाले रथ के पहिये में लोहे के औजार से छेद किया जाता है, पहिये पर बाद में एक्सेल चढ़ाया जाता है। इसके बाद बकरे की बलि दी जाती है, जिसका अर्थ नाल काटने के बाद देवी स्नान से है। बकरे के रक्त को पहिये पर चढ़ाया जाता है। इसके बाद रथ के लिए एक्सेल या कील बनायी जाती है। राजा दलपतदेव ने सन् 1727 में जगदलपुर को अपनी राजधानी बनाया था। इतिहासकारों का अनुमान है, कि संभवतः तत्कालीन कर्मकारों ने यह पत्थर मधोता या बस्तर से लाकर यहाँ स्थापित किया होगा। बाद में कर्मकार इसे आराध्य मानकर पूजने लगे। 387 वर्षों से यह पत्थर इसी स्थान पर स्थापित है। परम्परा है, कि दशहरे में रथ में लगने वाला पहला लोहे का सामान इसी पत्थर पर बनता है।
02 पैट जात्रा
बस्तर अंचल में लकड़ियों को पवित्र माना जाता है। यहाँ की जनजातीय संस्कृति में लकड़ी का एक विशिष्ट स्थान है। रथ के निर्माण के लिए गोल लकड़ी (पेड़ के तने) का उपयोग किया जाता है। दरअसल इस त्योहार की शुरुआत ही 'पाट जात्रा' यानि लकड़ी पूजा से होता है, इसमें लकड़ी के एक बड़े तने को महल के सिंह द्वार पर लाकर हरेली अमावस्या (जुलाई के मध्य में) के अवसर पर पूजा जाता है।
03 नारफोड़नी
विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा पर्व में सिरासार चौक में विधि-विधानपूर्वक नारफोड़नी रस्म पूरी की जाती है। इसके तहत कारीगरों के प्रमुख की मौजूदगी में पूजा अर्चना की जाती है। इस मौके पर मोगरी मछली, अंडा व लाई-चना अर्पित किया जाता है। साथ ही औजारों की पूजा की जाती है।। पूजा विधान के बाद रथ के एक्सल के लिए छेद किए जाने का काम शुरू किया जाता है। रथ के मध्य एक्सल के लिए किए जाने वाले छेद को नारफोड़नी रस्म कहा जाता है। चार पहियों वाला रथ सिरासार के सामने तैयार किया जाता है। इस कार्य में झारा और बेड़ा उमरगांव से पहुंचे करीब 150 कारीगर लगते हैं।
04 पिरती फारा
पिरती फारा की रस्म में पहले निर्माणाधीन रथ के सामने बकरे की बलि दी जाती हैं। रथ निर्माण में लगे कारीगर आरा मिल से लाकर करीब 25 फ़ीट लंबे तथा वजनी फारों को बड़ी सावधानी से ऊपर चढ़ाते हैं। इस कार्य के दौरान कोई अप्रिय वारदात न हो, इसलिए फारा चढ़ाने के पहले रथ की पूजा-अर्चना की जाती है।
05 डेरी गड़ाई
बस्तर दशहरा में पाट जात्रा के बाद दूसरी सबसे महत्वपूर्ण रस्म है डेरी गड़ाई। जगदलपुर के सिरासार भवन में पूरे विधि-विधान के साथ डेरी गड़ाई रस्म संपन्न की जाती है। इसके अंतर्गत बिरिंगपाल के ग्रामीण साल की दो शाखा युक्त दस फ़ीट की लकड़ी लाते है, जिसे हल्दी का लेप लगाकार प्रतिस्थापित किया जाता है। इसे ही डेरी कहते है। सिरासार भवन में दो स्तंभों के नीचे जमीन खोदकर पहले उनमें अंडा एवं जीवित मोंगरी मछली अर्पित की जाती है। फिर उन गड्डों में डेरी को स्थापित किया जाता है। इस रस्म के बाद बस्तर दशहरा के विशालकाय काष्ठ रथों का निर्माण कार्य प्रारंभ हो जाता है। विगत छ: सौ सालों से डेरी गड़ाई की रस्म मनाई जा रही है। रथ निर्माण में कोई विघ्न ना हो इसलिये देवी को याद कर डेरी गड़ाई की रस्म पूरी की जाती है। इस दौरान उपस्थित महिलाएं हल्दी खेलकर खुशियां मनाती है।
06 काछिनगादी
यह बस्तर दशहरा का प्रथम चरण है। काछिनगादी का अर्थ होता है काछिन देवी को गद्दी देना । काछिन देवी की गद्दी होती है काँटों की। काछिन देवी रणदेवी भी कहलाती हैं। वह काँटों की गद्दी पर बैठकर काँटों को जीतने का संदेश देती हैं। वह बस्तर के मिरगानों की कुलदेवी हैं। इस कार्यक्रम के लिए राजा अथवा राजा का प्रतिनिधि संध्या काल में धूमधाम के साथ जुलूस लेकर जगदलपुर के पथरागुड़ा मार्ग पर स्थित काछिनगुड़ी में पहुँच जाता था। वर्तमान में दंतेश्वरी मंदिर के पुजारी द्वारा इस कार्यक्रम की अगुवाई की जाती है। मान्यता के अनुसार काछिन देवी धन-धान्य की वृद्धि एवं रक्षा करती हैं। देवी के आगमन पर झूले पर सुलाकर उसे झुलाते हैं। फिर उसकी पूजा-अर्चना कर स्वीकृति प्राप्त की जाती है। काछिन देवी से स्वीकृति सूचक प्रसाद मिलने के पश्चात बस्तर का पारंपरिक दशहरा समारोह बड़ी धूमधाम के साथ प्रारंभ हो जाता है।
07 जोगी बिठाई
जोगी बिठाई रस्म से नवरात्रि कार्यक्रम प्रारंभ होता है। इस अवसर पर प्रातः स्थानीय दंतेश्वरी मंदिर में सर्वप्रथम कलश स्थापन होती है। चंडी हनुमान बगलामुखी और विष्णु आदि देवी देवताओं के जप और पाठ नवरात्र भर चलते रहते हैं। इसी दिन सिरासार भवन में जोगी बिठाई की प्रथा पूरी की जाती है। कहा जाता है, कि एक बार कोई आदिवासी दशहरा निर्विघ्न संपन्न होने की कामना लेकर अपने ढंग से योग साधना में बैठ गया था। तभी से दशहरे के अवसर पर जोगी बिठाने की प्रथा चल पड़ी है। जोगी बिठाने के लिए सिरासार भवन के मध्य भाग में एक आदमी के समाने लायक एक कुण्ड जैसा बना है, जिसके अंदर हलबा समुदाय का एक व्यक्ति लगातार 9 दिन योगासन में बैठा रहता है। जोगी बिठाई के समय पहले एक बकरा और 7 माँगुर मछली काटने का रिवाज था। अब बकरा नहीं काटा जाता, केवल माँगुर माछ ही काटे जाते हैं।
08 रथ परिक्रमा
जोगी बिठाई के दूसरे दिन से रथ परिक्रमा शुरू हो जाती है। अश्विन शुक्ल 2 से लेकर लगातार अश्विन शुक्ल 7 तक चार पहिए वाला यह रथ पुष्प सज्जा प्रधान होने के कारण फूलरथ कहलाता है। इस रथ पर आरुढ़ होने वाले राजा के सिर पर फूलों की पगड़ी बंधी होती थी। राजा रथ पर अब केवल देवी दंतेश्वरी का केवल छत्र ही आरुढ़ रहता है। साथ में देवी का पुजारी रहता है। रथ प्रतिदिन शाम को एक निश्चित मार्ग का परिक्रमा करता है और राजमहल के सिंहद्वार के सामने खड़ा हो जाता है। पहले 12 पहियों वाला एक विशाल रथ किसी तरह चलाया जाता था। परंतु चलाने में असुविधा होने के कारण एक रथ को आठ और चार पहियों वाले दो रथों में विभाजित कर दिया गया। क्योंकि जनश्रुति है कि राजा पुरुषोत्तम देव को जगन्नाथ जी ने बारह पहियों वाले रथ का वरदान दिया था। दशहरे की भीड़ में गाँव-गाँव से आमंत्रित देवी-देवताओं के साज-बाज आज भी देखने को मिल जाते हैं। उनके छत्र डंगड्याँ घंटे, बैरक घंटे, शंख तोड़ियाँ आदि सब अपनी- अपनी जगह ठीक ठाक हैं, आज भी लोग श्रद्धा भक्ति से प्रेरित होकर रथों की रस्सियाँ खींचते हैं। रथ के साथ-साथ नाच गाने भी चलते रहते हैं। मुंडा लोगों के मुंडा बाजे बज रहे होते हैं। उनका 'मार' (लोक-नृत्य) धमाधम चल रहा होता है। नाइक, पाइक, माझी एवं कोटवार आदि तो आज भी चलते है, पर पहले सैदार, बैदार, पड़ियार और राजभवन के नौकर चाकर भी अपने अपने राजसी पहनावे में चलते थे। पहले रथ प्रतिदिन सीरासार चौक से ठीक समय पर चलकर शाम को एक निश्चित समय पर सिंहद्वार के सामने पहुँच जाता है। इस रथयात्रा के दौरान हल्बा सैनिकों का वर्चस्व रहता था। अश्विन शुक्ल 7 को चार पहियों वाले रथ की समापन परिक्रमा चलती है। तत्पश्चात दूसरे दिन दुर्गाष्टमी मनाई जाती है। दुर्गाष्टमी के अंतर्गत निशा जात्रा का कार्यक्रम होता है। निशा जात्रा का जलूस नगर के इतवारी बाज़ार से लगे पूजा मंडप तक पहुँचता है।
09 जोगी उठाई एवं मावली परघाव
मावली परघाव का अर्थ है देवी की स्थापना। अश्विन शुक्ल 9 को संध्या समय लगभग 5 बजे जगदलपुर स्थित सिरासार में बिठाए गए जोगी को समारोहपूर्वक उठाया जाता है। फिर जोगी को भेंट देकर सम्मानित करते हैं। इसी दिन लगभग 9 बजे रात्रि में मावली परघाव होता है। इस कार्यक्रम के तहत दंतेवाड़ा से श्रद्धापूर्वक दंतेश्वरी की डोली में लाई गई मावली मूर्ति का स्वागत किया जाता है। नए कपड़े में चंदन का लेप देकर एक मूर्ति बनाई जाती है, जिसे पुष्पाच्छादित कर दिया जाता है और यही मावली माता कहलाती हैं। मावली माता निमंत्रण पाकर दशहरा पर्व में सम्मिलित होने जगदलपुर पहुँचती हैं। पहले इनकी डोली को राजा कुँवर राजगुरु और पुजारी कंधे देकर दंतेश्वरी मंदिर तक पहुँचाते थे। आज भी पुजारी राजगुरु और राजपरिवार के लोग श्रद्धा सहित डोली को उठा लाते हैं।
10 विजयादशमी भीतर रैनी
विजयादशमी तथा अश्विनी शुक्ल को विजया दशमी के दिन भीतर रैनी तथा एकादशी के दिन बाहिर रैनी के कार्यक्रम होते हैं। दोनों दिन आठ पहियों वाला विशाल रथ चलता है। भीतर रैनी अर्थात विजयादशमी के दिन यह रथ अपने पूर्ववर्ती रथ की ही दिशा में अग्रसर होता है। इस रथ पर झूले की व्यवस्था रहती है, जिस पर पहले रथारूढ़ शासक वीर वेश में बैठा झूला करता था। विजयदशमी की शाम को जब रथ वर्तमान नगर पालिका कार्यालय के पास पहुँचता था तब रथ के समक्ष एक भैंस की बलि दी जाती थी। भैसा महिषासुर का प्रतीक माना जाता है। तत्पश्चात जुलूस में उपस्थित राजमान्य नागरिकों को रुमाल और बीड़े देकर सम्मानित किया जाता था। परिक्रमा पूरी होने पर आदिवासी आठ पहियों वाले इस रथ को प्रथा के अनुसार चुराकर कुम्हड़ाकोट ले जाते हैं।
11 बाहिर रैनी
बाहिर रैनी की बस्तर दशहरा की एक मनोरंजक रस्म है। इसके अंतर्गत माईजी की डोली के रथ पर सवार होते ही रस्म के हिसाब से रथ चुराने की परंपरा का निर्वहन किया जाता है। रथ चुराने के लिए किलेपाल, गढ़िया एवं करेकोट परगना के 55 गांवों से 4 हज़ार से अधिक ग्रामीण यहां पहुंचते है। वे राजमहल के सामने खड़े रथ को बिना कोई शोर मचाए चुराकर कोतवाली के सामने से खींचते हुए रातों रात इसे करीब 5 कि.मी. दूर कुम्हड़ाकोट के जंगलों में ले जाते हैं। इसके बाद रथ को यहां पेड़ों के बीच में छिपा दिया जाता हैं। रथ चुराकर ले जाने के दौरान रास्ते भर उनके साथ आंगादेव सहित सैकड़ों देवी-देवता भी साथ रहते है। रथ चोरी होने के बाद महाराजा कमलचंद्र भंजदेव, राजगुरू - नवीन ठाकुर अन्य लोगों के साथ कुम्हड़ाकोट जाते है। यहां पहले नए फसल के अनाज को ग्रामीणों के साथ पकाने के बाद इसका भोग राजपरिवार के सदस्य करते है। इसके बाद चोरी हुए रथ को वापस लाने के लिए ग्रामीणों को मनाया जाता है। देर शाम रथ को बस्तर महाराज अपनी अगुवाई में लेकर वापस दंतेश्वरी मंदिर पहुंचते है। रथ को वापस लाने की रस्म को बाहिर रैनी रस्म कहा जाता है। रथ के लौटते ही बस्तर दशहरा के रथ संचालन की रस्म पूर्ण हो जाती है। इतिहासकार बताते हैं कि दशहरा रथ चोरी की रस्म पिछले 259 वर्षों से जारी है।
12 मुरिया दरबार
अश्विन शुक्ल 12 को प्रातः निर्विघ्न दशहरा संपन्न होने की खुशी में काछिन जात्रा के अंतर्गत काछिन देवी को काछिनगुड़ी के पास वाले पूजामंडप पर पुनः सम्मानित किया जाता है। इसी दिन शाम को सीरासार में लगभग 5 बजे से ग्रामीण तथा शहराती मुखियों की एक मिली जुली आम सभा लगती थी, जिसमें राजा और प्रजा के बीच विचारों का आदान प्रदान हुआ करता था। विभिन्न समस्याओं के निराकरण हेतु खुली चर्चा होती थी। इस सभा को मुरिया दरबार कहते थे। बस्तर दशहरे का यह एक सार्थक कार्यक्रम था। रस्मी तौर पर यह परम्परा आज भी निभाई जा रहीं है। इसी के साथ गाँव-गाँव से आए देवी देवताओं की विदाई हो जाती है।
13 ओहाड़ी
अंत में अश्विन शुक्ल 13 को प्रात: गंगा मुणा स्थित मावली शिविर के निकट बने पूजा मंडप पर मावली माई के विदा सम्मान में गंगा मुणा जात्रा संपन्न होती है। इस कार्यक्रम को ओहाड़ी कहते हैं। पहले बस्तर दशहरा के विभिन्न जात्रा कार्यक्रमों में सैकड़ों पशुमुंड कटते थे, पर अब यह प्रथा बंद- सी हो गई है।