कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान का सम्पूर्ण जानकारी | Kanger Valley National Park

कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान का सम्पूर्ण जानकारी | Kanger Valley National Park

छत्तीसगढ़ के प्रमुख तीन राष्ट्रीय उद्यानों में से एक कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान जगदलपुर से 27 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। सन् 1982 में स्थापित इस उद्यान का कुल क्षेत्रफल 200 वर्ग किलोमीटर है। यह उत्तर पश्चिम किनारे पर तीरथगढ़ जलप्रपात से शुरू होकर पूर्व में ओड़िसा की सीमा पर कोलाब नदी तक फैला हुआ है।

इस राष्ट्रीय उद्यान में साल, बाँस और सागौन की बहुलता वाले वन, विश्व प्रसिद्ध गुफाएं, खूबसूरत झरने तथा वन्य पशुओं की सैरगाह अपने सौंदर्य से पर्यटकों का मनमोह लेते हैं। इसके अलावा 28 किलोमीटर लम्बा एशिया का प्रथम घोषित जीवमंडल (बायोस्फियर) भी यहीं स्थित है और हज़ारों-करोड़ों साल प्राचीन शैल श्रंखलाएं भी इसके भीतर हैं। प्रकृति विशेषज्ञों का दावा है, कि पूरे छत्तीसगढ़ राज्य में कांगेर घाटी इकलौता वर्षा वन है। यहां कम-से-कम इंसानी दखल है। नदी-नालों से भरपूर इस घाटी की पहचान कांगेर नदी से है। कांग मतलब पवित्र और एर्र मतलब पानी होता है। भाषाशास्त्रियों के अनुसार कांगेर शब्द की रचना गोंडी बोली के कांग और एर्र के युग्म से मिलकर हुई है। कुछ सालों पहले घाटी के ग्राम कोटमसर के पास फूलडोंगरी में एक गहरे कुंए में जंग लगे मिले हथियारों से खोज को नई दिशा मिली थी। इसी प्रकार घाटी के ठेंठ दक्षिण पूर्व में कोलेग से लगी तुलसीडोंगरी के पास गंगागढ़ नामक किले की पत्थर से बनी बाहरी दीवार का पता चला था। रियासतकाल तक इस घाटी को बस्तर के राजाओं ने अपनी शिकारगाह बना रखा था। घाटी की पूर्वी तलहटी की करपानों, कंदराओं और मैदानों में विचरने वाले प्राणियों के शिकार के लिए बकायदा सशुल्क परमिट जारी हुआ करते थे। उस काल के लकड़ी के बने कुछ पुल भी यहां देख-रेख के बिना भी आज तक मौजूद हैं। यहां धावड़ा, हल्दु, तेन्दु, कुल्लू, कर्रा, जामुन, सेन्हा, आम, बहेड़ा, बाँस आदि के वृक्ष पाये जाते हैं, इसके अतिरिक्त सफेद मूसली, काली मूसली, तेजराज, सतावर, रामदतौन, जंगली प्याज, जंगली हल्दी, तिखुर और सर्पगंधा आदि औषधीय पौधे भी पाये जाते हैं। यहाँ बेंत, साल एवं सागौन भी बहुतायत में हैं। वन्य प्राणियों में शेर, तेन्दुआ, चीतल, सांभर, लकड़बग्घा, हिरण, जंगली भालू, सियार, घड़ियाल, सांप एवं विभिन्न प्रकार के पक्षी पाये जाते है। पर्यटकों की सुविधा के लिए कई वन विश्राम गृह हैं, जिनका आरक्षण संचालक, कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान, जगदलपुर से कराया जा सकता है।


    01 प्रमुख निरीक्षण बिन्दु


    कक्ष क्रमांक 115दु

    इस कक्ष में पहाड़ी के ऊपर एक वॉच टॉवर का निर्माण किया गया है, जहाँ से कांगेर घाटी का विहंगम दृश्य देखा जा सकता है।


    कक्ष क्रमांक 64

    इस कक्ष से राष्ट्रीय उद्यान एवं ओड़िसा के जंगलों का विहंगम दृश्य तथा कोलाब नदी, जो कि छत्तीसगढ़ एवं ओड़िसा की सीमा रेखा बनाती है, को देखा जा सकता है।


    कक्ष क्रमांक 66

    इस कक्ष में कोलाब नदी एवं कांगेर नदी का संगम है।


    कक्ष क्रमांक 326

    यह कक्ष भैंसा दरहा से क्योलांग जाने वाले रास्ते पर स्थित है। यहाँ एक वॉच टॉवर का निर्माण किया गया है, जहाँ से अभयारण्य क्षेत्र को देखा जा सकता है।


    कक्ष क्रमांक 52

    इस कक्ष में सागौन के चार अत्यंत मोटे वृक्ष स्थित है, जिनकी गोलाई लगभग 6 मीटर है। इनका नाम राम, लक्ष्मण, भरत एवं शत्रुध्न रखा गया है।


    02 लोअर कांगेर वैली ड्राईव

    कोटमसर से कैलाश गुफा मार्ग में एक ओर कांगेर नदी इठलाती हुई बहती है तो दूसरी ओर सघन वन एवं लताओं से आच्छादित ऊंचे पहाड़ हैं। वन विभाग द्वारा यहाँ लगभग 7 कि.मी. की लोअर कांगेर वैली की मनोरम यात्रा की व्यवस्था की गई है, जिसमें पर्यटक अपनी सुध-बुध खो बैठते हैं।



    03 देवगिरि गुफा

    यह प्राकृतिक भूमिगत गुफा जगदलपुर से 40 कि.मी. दूर निचली कांगेर घाटी के मध्य पहाड़ी की ढाल पर है। गुफा प्रवेशद्वार से लगभग 30 मीटर दूरी पार करने पर उत्शैल निर्मित गजमस्तक के दर्शन होते हैं। 2.5 से 5 मीटर तक गहरी इस गुफा में अनेक प्राकृतिक रूप से बने शिवलिंग हैं। यहाँ झुमरी, शीत गुफा तथा मादर कोण्टा गुफा भी दर्शनीय है।



    04 तीरथगढ़ जलप्रपात

    यह जलप्रपात राष्ट्रीय उद्यान के बैरियर से 4 कि.मी. दाहिनी ओर बढ़ने पर स्थित है। जगदलपुर से इसकी दूरी 29 कि.मी. है। कांगेर तथा उसकी सहायक नदी मुनगाबहार 35 मीटर की ऊँचाई से गिरकर इस सुंदर जलप्रपात का निर्माण करती हैं। तीरथगढ़ दो स्तरों पर जलप्रपात का निर्माण करता है। पहले खण्ड में लगभग 200 सीढ़ियाँ नीचे उतरकर एक गहरा जलकुण्ड है, जिसकी गहराई लगभग 70 फ़ीट है। इस कुण्ड का जल आगे पुनः लगभग सौ फ़ीट नीचे चौड़ी-मोटी धारा के रूप में गिरकर एक ताल के रूप में बदल जाता है। दूसरे खण्ड में ऊँचाई से गिरती धाराओं के पीछे जाकर फुहारों का मजा लिया जा सकता है। दोनों खण्डों का सारा पानी तीसरे खण्ड में एक छोटे प्रपात के रूप में गिरकर दूर-दूर तक बहता चला जाता है। दोनों खण्डों के मध्य टीले के आकार की जगह में छोटे-छोटे कुछ मंदिर हैं तथा साथ ही कुछ शिलालेख भी हैं।



    05 नेचर ट्रेल

    तीरथगढ़ जलप्रपात मार्ग पर लगभग 1.5 कि.मी. लम्बा नेचर ट्रेल विद्यमान है । इस ट्रेल से गुजरने पर सामान्य ज्ञान में बढ़ोत्तरी होती है तथा पर्यटकों को पैदल रहस्यमयी यात्रा का रोमांच भी प्राप्त होता है।

    कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान 1 नवम्बर से 30 जून तक खुला रहता है। वर्षाकाल मे जुलाई से अक्टूबर तक उद्यान बंद रहता है। पक्षियों को निहारने के लिये बायनाकुलर व कैमरा ले जाना जरूरी है। वन्य प्राणी प्रातः व शाम को विचरण के लिये निकलते है। दुर्लभ प्राणी कई बार कई-कई दिनों में दिखते हैं। कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान में वे सभी चीजें हैं, जो किसी राष्ट्रीय उद्यान की विशेषता होती है। यहाँ वनाच्छादित धरा के साथ वन्य प्राणी एवं कलकल करते प्रपात व इठलाती कांगेर नदी भी है। यहाँ पर रोमांचक खेलों जैसे ट्रेकिंग, नेचर ट्रेल पर विचरण, रैपलिंग आदि की असीम संभावना है।



    06 कुटुमसर गुफा

    इस गुफा को उजागर करने का श्रेय भूगोलविद् डॉ. शंकर तिवारी को जाता है। उन्होंने 1958 से 64 के मध्य लगभग 6 सौ दिन इस गुफा में बिताए थे। यह भारत की सबसे बड़ी तथा विश्व की सातवीं सबसे बड़ी गुफा है। कुटुमसर पहाड़ी की तलहटी में इस गुफा का प्रवेशद्वार समतल भूमि पर ही स्थित है। गुफा की ज्ञात लम्बाई साढ़े 4 हज़ार फ़ीट तथा मुहाने से धरातल तक की गहराई लगभग 60 से 215 फ़ीट है। प्रवेशद्वार से तीन चरणों में लोहे की सीढ़ियों द्वारा लगभग 55 फ़ीट नीचे उतरने पर पुन: समतल धरातल है। गहन अँधकार में पेट्रोमेक्स या टॉर्च की रोशनी जब गुफा की दीवारों व छतों पर पड़ती हैं, तो अवशैल की स्फटिक जैसी मनोहर आकृतियाँ मन को बाँध लेती हैं। गुफा के अंदर इतना विशाल कक्ष है, जहाँ हाथियों को खड़ा किया जा सकता है। इस विशाल कक्ष के एक ओर विस्तृत जलराशि है तथा दूसरी ओर लम्बाई में फैले विशाल शिलाखण्ड समूह और कटावयुक्त सुंदर दीवारें हैं। गुफा आगे चलकर दो भागों में बंट जाती है। एक भाग में अद्भुत शिवलिंग है। दूसरे भाग में 12 मीटर गहरी तथा एक मीटर चौड़ी गुफा है, यहाँ प्रवेशद्वार नहीं है। इस गुफा में एक जलकुण्ड है, जिसे शंकर कुण्ड कहते हैं। इस कुण्ड में विश्व प्रसिद्ध अंधी मछलियाँ पाई जाती हैं। यह मछलियों की अनूठी प्रजाति मानी जाती है। इस गुफा की दक्षिण- पश्चिम दिशा में 32 मीटर लम्बा तथा 1.5 मीटर चौड़ा जलकुण्ड है, इसे अप्सरा विहार कहते हैं। यहाँ दुर्लभ गुफा-मोती मिलते हैं। एक तीसरा जलकुण्ड गुफा के दक्षिण- पश्चिम की ओर कम ऊँचाई की छतों के बीच स्थित है। इसकी ऊँचाई साढ़े चार फ़ीट तथा लम्बाई 105 फ़ीट है। गुफा पर बने अवशैल तथा उत्शैल की स्तंभनुमा रचना को पत्थरों द्वारा बजाने पर वाद्ययंत्रों की भांति मधुर ध्वनि निकलती है। इन गुफाओं में लम्बी मूंछों वाला झिंगुर पाया जाता है जिसे शंकर के नाम पर शोधकर्ताओं ने 'केप्पीओला शंकराई' नाम दिया है।



    07 चिकनर्रा जलप्रपात

    तीरथगढ़ जलप्रपात से लगभग 4 किलोमीटर की दूरी पर बहाव के निचले स्तर पर चिकनर्रा जलप्रपात स्थित है। यहां कुंदरू नाला तकरीबन 25 फ़ीट की ऊंचाई से नीचे गिरता है। इस जलप्रपात की खास बात यह है कि इसके चारों तरफ रेत और चट्टानें हैं। चिकनर्रा जलप्रपात 80 से 90 अंश का कोण बनाते हुए अंग्रेजी के व्ही अक्षर आकर की एक गहरी खाई का निर्माण करता है, जिसके चलते यह दुर्गम इलाका माना जाता है। इसके अलावा अत्यंत घने वनों से आच्छादित होने और घाटी के किनारे होने से इसकी दुर्गमता और अधिक बढ़ जाती है। ग्रामीणों के अनुसार चिकनर्रा का अर्थ ऐसा स्थान होता है, जहां मत्स्याखेट किया जाता हो। ग्रामीण पिछले लंबे समय से इस प्रपात के नीचे मत्स्याखेट करते आ रहे हैं। कुंदरू नाला कांगेर नदी की एक सहायक नदी है। यह सरिसृपों और हरे साँपों की शरण स्थली भी है।



    08 भैंसादरहा झील

    यह चार हेक्टेयर के क्षेत्र में फैला हुआ विशाल प्राकृतिक जल क्षेत्र है, जिसे भैंसादरहा कहते है। इस झील का निर्माण कांगेर नदी द्वारा हुआ है। यह घने बाँस के वनों एवं झुरमुटों के बीच स्थित है। कांगेर नदी कोटमसर से इठलाती और कूदती- फांदती हुई यहाँ आकर मानो ठहर सी जाती है। इस झील की गहराई में जंगली भैंसों जैसा कुशल तैराक पशु भी डूब जाता है, इसलिए इसे भैंसादरहा कहा जाता है। आरक्षित उद्यान क्षेत्र के कक्ष क्रमांक 326 में स्थित इस अंडाकार प्राकृतिक झील का जल क्षेत्र लगभग 4 हेक्टेयर के क्षेत्र में फैला हुआ है, जिसकी अब तक ज्ञात अधिकतम गहराई 18 से 20 मीटर है। यह झील पूर्वी दिशा में शबरी (कोलाब) नदी में समा जाती है। 'भैंसादरहा' छत्तीसगढ़ में एक मात्र स्थल है जहाँ प्राकृतिक रूप से आबाद मगरमच्छों का संरक्षण किया जा रहा है। यह झील कछुओं का भी नैसर्गिक वास है। 'भैंसादरहा' तथा उद्यान की सीमा में वर्ष 1999 की गणना अनुसार एक सौ मगर पाए गए। भैंसादरहा का एक और आकर्षण यहां की मछलियाँ हैं, जो 5 से 7 किलो वजन तक की होती हैं।



    09 कांगेरधारा जलप्रपात

    कुटुमसर ग्राम के नजदीक कांगेर नदी का पानी कांगेर राष्ट्रीय उद्यान के अन्य 8-10 स्थानों पर गिरता है और सुंदर जलप्रपात का रूप धारण करता है। इन्हीं जलप्रपातों में से एक है 'कांगेर धारा'। कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान में स्थित इस जलप्रपात की ऊँचाई 20 फ़ीट है। भूवैज्ञानिक मानते हैं कि यह इलाका तलछटी भूभाग था, जिसमें आगे चलकर जलती हुई चट्टाने आ गई, जिसकी वजह से इलाका टेढ़ी-मेढ़ी आकृति का हो गया। कांगेर धारा स्थल की सबसे बड़ी विशेषता यह है, कि यहाँ हज़ारों वर्ष पुराने जीवाश्मयुक्त चट्टानें हैं। यहाँ की पथरीली चट्टानें, उथले जलकुण्ड और सुरम्य वादियाँ दर्शनीय है।



    10 शिव मंदिर, चिगींतराई

    तीरथगढ़ जलप्रपात से आगे कटेकल्याण जाने वाले मार्ग में गुमड़पाल ग्राम है । इस ग्राम को चिंगीतराई भी कहा जाता है। इस ग्राम में तालाब के पास एक छोटा सा प्राचीन शिव मन्दिर स्थित है। यह पूर्वाभिमुख मन्दिर लगभग 20 फ़ीट ऊँचा होगा। मन्दिर दो फ़ीट ऊँची जगती पर निर्मित है। मन्दिर गर्भगृह, अंतराल एवं मंडप में विभक्त है। मंडप पूरी तरह से नष्ट हो चुका है। मात्र वर्गाकार गर्भगृह ही शेष है। गर्भगृह के प्रवेशद्वार में गणेशजी का अंकन है।

    गर्भगृह में शिवलिंग स्थापित था, जिसकी जगह जलधारी पर वर्तमान में एक छोटे कलश की शिवलिंग के रूप में पूजा की जा रही है। अंतराल भाग में प्रवेशद्वार के दोनों तरफ अलंकृत भित्ति स्तंभ निर्मित है। द्वार शाखा के दाहिनी तरफ नीचे खड़ी चंवरधारिणी और उसके नीचे मयूर का अंकन है। बायें तरफ पगड़ी एवं दाढ़ी वाले उपासक अंजली मुद्रा में बैठे हुए हैं। मन्दिर का मंडप स्तंभों पर आधारित था जिसका निचला भाग ही बचा है।

    शिखर भाग के निर्माण में द्रविड़ शैली का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। मन्दिर का ऊपरी शिखर भाग पिरामिडनुमा है। यह तीन तलों में निर्मित है। उसके ऊपर आमलक तथा कलश नहीं है। द्रविड़ स्थापत्य कला के आधार पर इस मन्दिर को 13वीं सदी में काकतीय चालुक्य के शासनकाल में निर्मित माना गया है। इस वंश के किस राजा के शासनकाल में यह मन्दिर बना, इसकी कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। मंदिर के सामने ही एक तालाब है तथा आसपास कई छोटे बड़े टीले हैं। मंदिर से लगभग 5 सौ मीटर की दूरी पर एक छोटी सी पहाड़ी की तलहटी में एक वृक्ष के नीचे गणेश जी की एक ढाई फ़ीट ऊंची प्रतिमा विद्यमान है, जो उपेक्षा के कारण खराब हो रही है। इस स्थल के ठीक सामने पहाड़ी के बिलकुल ऊपर शिखर के आसपास अनेक छोटी- प्रतिमाएं किसी ढेर की तरह एक स्थान पर रखी हुई है। इनमें गुप्तकालीन प्रतिमाओं के साथ-साथ जैन धर्म, बौद्ध धर्म, नलवंश एवं नाग शासको के समय की प्रतिमाओं के अवशेष हैं।



    11 चन्द्रगिरि जलप्रपात

    जिला मुख्यालय से लगभग 35 किलोमीटर दूर स्थित यह जलप्रपात मुनगाबहार नदी पर निर्मित है। यहाँ नदी का पानी 3 सौ फ़ीट की ऊँचाई से अर्धचंद्राकार आकृति में प्राकृतिक रूप से निर्मित सीढ़ीनुमा चट्टानों से नीचे गिरता है तथा अप्रतिम दृश्य निर्मित करता है। किंवदंती है कि यहाँ दो भाई चिंगीराज तथा तीरथराज आए थे। इनमें से एक भाई चिंगीराज को गूमड़पाल भा गया और उसने वहाँ अपना नगर बसा लिया, जबकि दूसरे भाई तीरथराज को प्रपात के निकट का हिस्सा अच्छा लगा। इसलिए उसने अपने नगर की स्थापना प्रपात के निकट की।



    12 अरण्यक गुफा

    इस गुफा की खोज वर्ष 1991 में शोधकर्ताओं के एक दल ने किया था। कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान के पश्चिम में मादरकांटा ग्राम के निकट मंगलपुर पहाड़ी पर अरण्यक गुफा का प्रवेशद्वार अत्यंत संकरा है। गहन अंधकार में 18 फ़ीट नीचे उतरने पर गुफा का भीतरी कक्ष तीन भागों में बंटा दिखाई देता है। बाएं भाग में एक विशाल कक्ष है, जो स्टेलेक्टाइट और स्टेलेक्माइट्स से इस तरह सजा है मानो किसी राजभवन में झाड़फानूस लटक रहे हों। यहीं शिवलिंग की आकृति पर टपकते जलकण कृत्रिम रोशनी पड़ने से झिलमिला उठते हैं। 10 फ़ीट नीचे उतरने पर दायीं ओर गुफा का एक कक्ष दिखाई देता है। इसकी लम्बाई 50 फ़ीट, चौड़ाई 40 फ़ीट तथा ऊँचाई 22 फ़ीट है। यह ऊँचाई आगे जाकर कम होती जाती है। इसी से लगा एक मकर कक्ष है। इसमें युगरत्न मकर जैसी दिखने वाली भव्य रचनाकृति है। इस गुफा की भीतरी लम्बाई लगभग 7 सौ फ़ीट तथा गहराई 110 फ़ीट है। सुंदरता में यह गुफा अद्वितीय है। इसके स्टैलेक्टाइट्स को अगर छुएं तो ऐसी मधुर ध्वनि पैदा होती है मानो अनेक तार छेड़ दिए गए हों।



    13 कैलाश गुफा

    कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान में कुटुमसर गाँव से बायीं ओर 12 कि.मी. की दूरी पर स्थित एक पहाड़ी पर कैलाश गुफा स्थित है। इस गुफा की यात्रा कुटुमसर गुफा की भाँति ही रोमांचक है। गुफा के भीतर एक विशाल कक्ष ढलान के रूप में बना हुआ है, जिसमें स्टेलेक्माइट तथा स्टैलेक्टाइट्स की सुंदर श्वेत आकृतियाँ बनी हुई हैं। जगह-जगह शिवलिंग जैसी आकृतियों के कारण ही इस गुफा को कैलाश गुफा का नाम दिया गया है।

    कैलाश गुफा का प्रवेशद्वार भूमि सतह से पहाड़ी पर लगभग 40 मीटर की ऊँचाई पर बना हुआ है। गुफा की ज्ञात लम्बाई लगभग 2 कि.मी. तथा ऊँचाई लगभग 50 मीटर है। प्रवेशद्वार से भीतर जाने के लिए बनी सीढ़ियों द्वारा गुफा में जाना अत्यंत सरल हो गया है। लगभग सौ फ़ीट उतरने के बाद अनेक उत्शैल निर्मित रचनाएं नज़र आती हैं, छत पर भित्ति चित्र की भांति अवशैल रचनाएं मन को मोह लेती हैं। आगे बढ़ने पर गुफा 25 फ़ीट चौड़े और 35 फ़ीट लम्बे हॉल में बदल जाती है और आगे बढ़ने पर एक बड़ा कक्ष मिलता है, जिसकी लम्बाई 135 फ़ीट, चौड़ाई सौ फ़ीट तथा ऊँचाई 25 फ़ीट है। पूरी गुफा में अवशैलों और उत्शैलों की खूबसूरत रचनाएँ किसी सजे हुए दरबार सरीखी लगती हैं। कोटमसर गुफाओं की भाँति यहाँ भी इनसे मधुर ध्वनि निकलती है। गुफा के इस खण्ड को लोगों ने संगीत कक्ष का नाम दिया है। गुफा के बाहर झीलनुमा जलाशय है, जिसे कैलाश झील नाम दिया गया है। वनाच्छादित पहाड़ियों का दूर तक अवलोकन करने के लिए ऊँचा टॉवर बना हुआ है। इस गुफा की खोज सन् 1993 में श्रीकृष्ण सोनसाय, श्री राजाराम शिवहरे, सीताराम, श्री औतार एवं उनके सहयोगी झाडूराम यादव और श्री रोशनलाल साहू ने की थी। पर्यटकों की सुविधा के लिए यहाँ गाइड एवं टॉर्च उपलब्ध है। बारिश के मौसम में यह गुफा बंद कर दी जाती है एवं पुनः 16 अक्टूबर से 15 जून तक खोल दी जाती है।



    14 दंडक गुफा

    राष्ट्रीय उद्यान की सीमा में स्थित यह अनूठी गुफा डेढ़ दशक पूर्व प्रकाश में आयी। कुटुमसर ग्राम से एक ओर कुटुमसर गुफा के लिए रास्ता जाता है, दूसरी ओर जीवमंडल क्षेत्र के लिए एक लम्बा वन मार्ग शुरू होता है। इसी मार्ग पर कांगेर नदी के किनारे- किनारे 3 कि.मी. की यात्रा के बाद एक ऊँचा पहाड़ है, जिस पर यह गुफा स्थित है। समुद्री सतह से लगभग हज़ार फ़ीट की ऊँचाई पर स्थित इस पहाड़ी पर पैदल ही चलना पड़ता है। चढ़ने के लिए भूमि को ही काट-काट कर छोटी-छोटी सीढ़ियाँ बना दी गई हैं। गुफा का प्रवेशद्वार संकरा है। अंदर ढलान शुरू हो जाती है। सूखी भुरभुरी मिट्टी में हल्की सी नमी और फिसलन होती है, साथ ही मार्ग भी उबड़-खाबड़ है। अतः सावधानी से कदम बढ़ाते हुए चलना पड़ता है। थोड़ी दूर आगे चलकर पूरी गुफा एक विशाल सभागृह की तरह लम्बी-चौड़ी हो जाती है। यहाँ उत्शैल-अवशैल के विशाल पिण्ड, विशाल स्तम्भों की भांति छतों को सहारा देते हुए लगते हैं। बेतरतीबी से फैली शैल श्रंखलाओं में अद्भुत आकृतियों के दर्शन होते हैं। कहीं कोई शिला किसी पक्षी की चोंच की तरह लगती है, तो कहीं कोई तपस्वी साधना में रत बैठा हुआ सा लगता है। गुफा के दूसरे खण्ड में एक अत्यंत संकीर्ण द्वार से प्रवेश किया जा सकता है, जो पुनः एक विशाल कक्ष में पहुँचाता है। इस कक्ष में एक ओर कुएं की भांति गहराई है तो दूसरी ओर एक विशाल स्तम्भ ऊपर छत तक जाता है। इस कुएं के ऊपर छत से लटकती हुई शुभ्र पथरीली संरचनाएं और उन पर पड़ता प्रकाश अत्यंत आकर्षक लगता है। आगे जाकर छत काफी नीचे हो जाती है। प्रवेशद्वार से अंतिम छोर तक पहुँचने में लगभग एक घंटे से ज्यादा समय लगता है। इस गुफा में साही नामक जानवर के कांटे भी मिलते हैं, जिससे ज्ञात होता है, कि पहले यहाँ साही रहते थे। इसलिए दण्डक को 'साईकरपन' के नाम से भी जाना जाता है। इस गुफा से सम्बंधित शोधकार्य आज भी जारी है।



    15 हरी गुफा

    कांगेर घाटी में एक ऐसी गुफा प्रकाश में आयी है, जो हरीतिमा लिए हुए स्टेलेगटाइट और स्टेलेगमाइट की वजह से अन्य सभी गुफाओं से अलग अपना विशेष महत्व रखती है। 'दण्डक दल' नामक एक समूह ने गुफा विज्ञानियों के दल के साथ हरी गुफा के रहस्य को जानने की कोशिश की। गुफा के मुहाने से लगभग 35 मीटर की सीधी ढलान के पथरीले रास्ते पर चलकर इस समूह को कई सुरंगनुमा रास्ते और बड़ी संख्या में स्टेलेगटाइट और स्टेलेगमाइट की चमकदार चट्टानें मिलीं, जो छत से लटकीं और सतह पर भी मौजूद हैं। सबसे बड़ा आकर्षण हाथी की तरह आकृति लिए हुए 20 फ़ीट से भी ऊँची स्टेलेगटाइट की हरी चट्टान है। प्रकाश पड़ते ही इन चट्टानों का सौंदर्य और भी अधिक निखर जाता है। वैज्ञानिकों के अनुसार नमी और सूर्य के प्रकाश की वजह से चट्टान पर शैवाल उग आये हैं जिनका रंग हरा है।