
बारसूर का इतिहास
Bastar अंचल के दक्षिणी सीमांत Dantewada District में स्थित बारसूर ऐतिहासिक काल के धरोहर तथा पुरावशेषों की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थल है। घना वन और पहाड़ी भू-भाग के मध्य Indravati Nadi से परिरक्षित बारसूर, छिन्दक नाग राजाओं के काल में एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में विकसित था।
Bastar के अंचल में प्रचलित Public Opinion के अनुसार बारसूर पौराणिक काल में बाणासुर की नगरी थी तथापि एतिहासिक प्रमाणों के आधार पर यह मान्यता निराधार है।
Barsur, 11वीं शताब्दी ईस्वी के आरम्भ में नागवंश के Bastar में अभ्युदय पर उनकी राजधानी बना। Barsur को "बारसगढ़" कहा जाता है, क्योंकि यह स्थल गड्ढों से भरा हुआ है।
तत्कालीन अभिलेखों से यह ज्ञात होता है कि 11वीं शताब्दी में इस क्षेत्र को चत्रकूट या 'भ्रमर कोट्स' भी कहा जाता था। बारसूर में नागयुगीन अवशेषों से ऐसा प्रतीत होता है, कि इस काल में धर्म दर्शन तथा स्थापत्यकला की अत्यधिक उन्नति हुई थी।
11वीं शताब्दी में कुल 147 बड़े मंदिर, 147 तालाब व अनेक छोटे- छोटे मंदिर थे, जो बारसूर में चारों दिशाओं मे 12-13 kilometres दूरी तक बनवाए गए थे। वर्तमान में मात्र 5-6 तालाब व मंदिर शेष रह गए हैं। Barsur के भग्न मंदिरों की विद्यमान श्रंखला क्षेत्रीय कला के अध्ययन और पर्यटन की दृष्टि से उल्लेखनीय है।
01 तुलसीसा मंदिर
Tulseesa Mandir : Barsur का युगल शिवालय एक अनूठा आराधना स्थल है। यह पूर्वाभिमुखी मंदिर त्रिरथ शैली में निर्मित है और इसका मंडप बत्तीस स्तम्भों पर आधारित है। इसलिए यह बत्तीसा मन्दिर ( Battisa Temple ) के नाम से ही जाना जाता है।
Battisa Temple में स्तंभ 4-4 की संख्या में 8 पंक्तियों में हैं। मंडप में स्थापित नंदी प्रतिमा पर बारीक और सुंदर नक्काशी है। इस मन्दिर में दो गर्भगृह हैं। ये शिवलिंग आकार-प्रकार में अत्यंत सुगठित है। दोनों शिवलिंग किसी यांत्रिक तकनीक से जिलहरी पर स्थापित है। इन्हें चारों तरफ घुमाया जा सकता है। ऐसा उदहारण अन्यत्र नहीं मिलता।
ये दोनों शिवालय सोमेश्वर महादेव ( Someshwar Mahadev ) और गंगाधरेश्वर महादेव ( Gangadhareshwar Mahadev ) के नाम से शिलालेख में दर्ज हैं।
सन् 1208 में नाग शासन काल में राजमहिषी गंगमहादेवी ने यह मंदिर बनवाया था। उन्होंने एक शिवालय का अपने नाम पर और दूसरे शिवालय का अपने पति सोमेश्वर देव (Someshwar Dev ) के नाम पर नामकरण किया। मन्दिर के खर्च एवं रखरखाव के लिये उन्होंने केरुमर्क गाँव दान दिया था। यह मंदिर Chhattisgarh Government द्वारा संरक्षित है।
02 मामा-भांजा मंदिर
Mama Bhanja Mandir : शिव को समर्पित यह मंदिर Jagdalpur - Dantewada मार्ग पर गीदम से 23 कि.मी. दूर स्थित है। इस मंदिर का नाम इससे जुड़ी दंतकथा के कारण है।
कहते हैं कि गंगवंशीय राजा का कोई भांजा उत्कल देश से कारीगरों को बुलवा कर इस मंदिर को बनवा रहा था। मंदिर की सुन्दरता ने राजा के मन में जलन की भावना भर दी। इस मंदिर के स्वामित्व को लेकर Mama - Bhanje में युद्ध हुआ, जिसमें मामा को जान से हाथ धोना पड़ा। पश्चाताप होने पर भाँजे ने पत्थर से मामा का सिर बनवा कर मंदिर में लगवा दिया फिर भीतर अपनी मूर्ति भी रखवा दी।
एक अन्य दंतकथा के अनुसार 'मामा' और 'भांजा' दो शिल्पकार थे, जिन्हें ये मंदिर सिर्फ एक दिन में ही पूरा करने का काम मिला था, जो उन्होंने पूरा भी कर दिया।
यह मंदिर अपनी संरचना में, अवस्थित प्रतिमाओं की निर्मिति में, उनके अलंकरणों की प्रकृति में Bastar के अन्य मंदिरों और प्राप्त प्रतिमाओं से समुचित भिन्नता रखता है। यहाँ मंदिर के गर्भगृह में तथा द्वार शाखा पर गणेश प्रतिमा ही विद्यमान है।
मंदिर की पश्चिमी भित्ति के सहारे ललितासन में द्विभुजी गणेश प्रतिमा स्थापित है। गणेश के दायें हाथ में परशु तथा बायें हाथ में मोदक पात्र विद्यमान हैं। प्रतिमा ने यज्ञोपवीत धारण किया हुआ है। इस प्रतिमा के बायीं ओर चतुर्भुजी नरसिंह की प्रतिमा रखी हुई है। यद्यपि ये दोनों ही प्रतिमाएं बाद में रखी हुई प्रतीत होती हैं।
गर्भगृह की द्वार शाखा के ललाट बिम्ब में चतुर्भुजी गणेश बैठे हुए प्रदर्शित हैं। इस प्रतिमा में गणेश के ऊपरी दायें हाथ में परशु तथा निचला हाथ अभय मुद्रा में है। इसी तरह ऊपरी बायें हाथ में गदा तथा निचले बायें हाथ में वे मोदक धारण किये हुए हैं। प्रतिमा के ठीक नीचे चलती हुई मुद्रा में मूषक अंकित किया गया है। यह मंदिर Indian Archaeological Department की देख-रेख में है।
03 गणेश मंदिर
Ganesh Mandir : यह मंदिर Barsur ग्राम में पश्चिम दिशा की तरफ जाने वाले रास्ते में लगभग 1 कि.मी. दूरी पर सड़क के बायें तरफ स्थित है। यह मंदिर ध्वस्त हो चुका है।
पिछले वर्ष Archaeological Survey Department, Raipur द्वारा इस मंदिर में मलबा सफाई का काम किया गया, जिसमें मंदिर का तल विन्यास प्रकाश में आया। यह मंदिर पूर्वाभिमुखी है जिसमें गर्भगृह, अंतराल और मण्डप तीन अंग थे। इस परिसर में अन्य कई मंदिरों के अवशेष भी देखे जा सकते हैं।
मंदिर परिसर में प्रस्तर निर्मित गणेश की दो विशाल प्रतिमाएं विद्यमान हैं, जो एक दूसरे के समानांतर है। वर्तमान में गणेश प्रतिमा के चारों तरफ शेड लगाकर लोहे की जाली लगा दी गई है। इसमें से एक प्रतिमा विश्व की तीसरी सबसे बड़ी गणेश प्रतिमा है।
एक मूर्ति विशाल तथा वास्तुकला की दृष्टि से अत्यंत मनमोहक है। इसके साथ ही लगा हुआ कदाचित छोटी गणेश प्रतिमा ऊपरी भाग से खडित है। यहीं पर पाषाण स्तम्भ व शिलाखण्डों से निर्मित मण्डप लगा हुआ है, जिस पर पाषाण कलश रखा हुआ है। लोग इसे अमृत कलश ( Amrit Kalash ) कहते हैं।
04 चंद्रादित्य मंदिर
Chandraditya Mandir : Barsur के शिलालेख शक संवत् 983 अंकित तेलगू लिपि में है, जिसके अनुसार नागवंशी शासक धारावर्ष के सामंत महामण्डलेश्वर चंद्रादित्य महाराज तेलगु चौड़ परिवार के एवं अम्मा गाँव के स्वामी थे। उन्होंने एक तालाब खुदवाया तथा एक शिव मंदिर का निर्माण करवाया।
Chandraditya Mandir की वास्तुकला उत्कृष्ट व मनमोहक है। इस मंदिर की प्रतिस्थापना के समय छिन्दक नाग शासक जगदीश भूषण के उपस्थित होने का उल्लेख मिलता है। यह मंदिर भी शिव को समर्पित था।
इस मंदिर के चारों ओर विभिन्न देवी-देवताओं की प्रतिमाएं अंकित हैं। ब्रह्मा, विष्णु की दशावतार प्रतिमाएं, प्रजापति, दक्ष, उमा-महेश्वर के साथ-साथ मिथुन युगल प्रतिमाओं का भी अंकन दिखाई देता है। उत्कीर्ण मूतियाँ इस बात का संकेत करती हैं, कि छिन्दक नाग शासक न केवल स्थापत्य कला में प्रवीण थे, बल्कि वे विभिन्न राज्यों के शिल्पियों, कारीगरों को लाकर मंदिर निर्माण कर अपनी कीर्ति को बढ़ाने का प्रयास भी करते थे।
पुरातत्व में रुचि रखने वाले पर्यटकों के लिए Barsur अत्यंत वैभवशाली नगरी है। बारसूर ग्राम के चारों ओर जलाशय बने हुए हैं। इन जलाशयों के निकट अभी भी कई मंदिरों के भग्नावशेष दिखाई पड़ते हैं। भगवान गुड़ी महादेव गुड़ी, नारायण गुड़ी, पेदम्मा गुड़ी नामक मंदिरों के अवशेष शोध का विषय है।
05 पेदम्मा गुड़ी मंदिर
Pedmma Gudi Mandir : यह मंदिर परवर्ती कलिंग शैली में निर्मित है, जिसके भग्न अवशेष अभी तक विद्यमान हैं। इस मंदिर का गर्भगृह रिक्त है, इस मंदिर में कुँवारी लड़की, लड़के तथा विवाहित महिलाओं का प्रवेश वर्जित है। तेलगु में बड़ी माँ को पेदम्मा ( Pedmma )कहा जाता है।
कुछ इतिहासकारों का मानना है, कि इस मंदिर से प्रतिमा निकालकर राजा अन्नमदेव ने दंतेश्वरी मंदिर ( Danteshwari Mandir ) में स्थापित कर दिया था। इस छत विहीन मंदिर के कई हिस्से ध्वस्त हो चुके हैं। गर्भगृह में काले शिलापट पर महिषासुरमर्दिनी की आकृति उत्कीर्ण है, इसके ऊपरी हिस्से में नागरी लिपि में लेख भी है।
06 परेवा गुड़ी और हिरमराज मंदिर
Pareva Gudi or Hiramraj Mandir : बारसूर के मंगलपोट पारा की एक पहाड़ी पर स्थित है ध्वस्त हिरमराज मंदिर ( Hiramraj Mandir) तथा कबूतरों को दाना चुगाने का प्राचीन स्थल परेवा गुड़ी।
मान्यता है, कि प्राचीन काल में इसे राजा तथा प्रजा दोनों के लिए पूजा आराधना के साथ-साथ शांति व आनंद प्राप्त करने के लिए पिकनिक स्थल के रूप में विकसित किया गया था। पहाड़ी की चोटी पर विशाल चट्टान पर स्थित 7-8 फ़ीट ऊँचे मंदिर से पूरे बारसूर का विहंगम दृश्य देखा जा सकता है।
वर्तमान में इस मंदिर में एक भी प्रतिमा नहीं है। उसका गुंबद भी ध्वस्त हो चुका है। जनश्रुति के अनुसार इस मंदिर के गर्भगृह में दंतेश्वरी की बहन देवी हिरमराज की प्रतिमा स्थापित थी। मौसम की मार झेलती हुआ यह नींव रहित मंदिर सिर्फ चूने के गारे के सहारे विगत 1300 सालों से टिकी हुई है।
प्राचीन काल में संभवतः इस स्थल को सुंदर रूप देने की योजना थी, क्योंकि मंदिर के चारों ओर चट्टानों को काटने के चिन्ह आज भी विद्यमान है। मंदिर तक पहुँचने के लिए चट्टानों को काटकर रास्ता भी बनाया गया है। इसके ठीक ऊपर पहाड़ की तलहटी में एक खण्डित प्रतिमा है।
प्रचलित मान्यता के अनुसार यह प्रतिमा बाणासुर की है। पहाड़ी के नीचे एक कुण्डनुमा सुंदर सा तालाब है। तालाब से लगी हुई एक विशाल चट्टान पर कबूतरों को दाना-पानी देने के लिए पत्थरों से निर्मित एक छोटा सा कुण्ड बना हुआ है। प्राचीन काल में यहाँ कबूतर पाले जाते थे। स्थानीय ग्रामीण इसे परेवा गुड़ी ( Pareva Gudi ) तथा तालाब को डोकरी तरई ( Dikari Tarai ) के नाम से जानते हैं।
07 तालाब के मध्य में शिवमंदिर का भग्नावशेष
बारसूर मुख्य बस्ती से 500 मी. की दूरी पर गनमनतराई नामक तालाब है। करीब 8 एकड़ में फैले इस तालाब के मध्य 11वीं सदी में निर्मित शिव मंदिर के भग्नावशेष हैं। तालाब में साल भर पानी रहता है। इसलिए, नाव से ही मंदिर तक पहुँचा जा सकता है। मंदिर की संरचना से प्रतीत होता है, कि यह चार स्तम्भों पर आधारित रहा होगा, जिसमें से एक स्तम्भ आज भी सुरक्षित है।
08 शिवमंदिर
मामा-भांजा मंदिर ( Mama Bhanja Mandir ) से पूर्व दिशा की ओर 700 मीटर की दूरी पर शिव मंदिर स्थापित है। मंदिर के गर्भगृह में शिव जी की प्रतिमा स्थापित है। इस पूर्वाभिमुखी मंदिर में स्थापित मिथुन प्रतिमाएं उत्कृष्ट हैं। मंदिर के पीछे सिंहराज तालाब है। सूर्य की किरणों में तालाब का पानी सोने की तरह दमक उठता है।
09 सोलह खम्भा, बारह खम्भा और आठ खम्भा मंदिर
मामा-भांजा मंदिर (Mama Bhanja Mandir ) से सिर्फ 100-200 मीटर पीछे ये तीनों मंदिर स्थित है। एक टीले पर स्थित सोलह खम्बा मंदिर ( Sohal Khambha Mandir ) देखने में बत्तीसा मंदिर ( Battisa Mandir ) के समकक्ष लगता है।
वर्तमान में यह अद्वितीय मंदिर पूरी तरह ढह चुका है। यह घनी झाड़ियों के बीच स्थित है। इस मंदिर के अलंकृत स्तम्भ अभी भी देखे जा सकते हैं। इसके अनेक स्तम्भ सुरक्षित हैं, गर्भगृह नष्ट हो चुका है। इस मंदिर की मूल संरचना में संभवतः गर्भगृह, अंतराल और मण्डप रहा होगा।
सोलह खम्भों पर टिके मण्डप के कारण इसे इसी नाम से पुकारा जाता है। यहाँ चार- चार की कतार में आठ एक ओर तथा आठ दूसरी ओर स्तम्भ बने हैं, जिनमे से कई अब नष्ट हो गये हैं। गर्भगृह के द्वार पर गणेश प्रतिमा है, भीतर एक भी प्रतिमा नहीं हैं। मंदिर का मुख्य भाग भी अब नष्ट हो चुका है। इसके आसपास सैकड़ों पुरातात्विक महत्व की वस्तुएं बिखरी पड़ी हैं। ये इसी मंदिर के हिस्से प्रतीत होते हैं।
बारह खम्भा मंदिरः सोलह खम्भा मंदिर से कुछ ही दूरी पर बारह खम्भा मंदिर ( Barah Khambha Mandir ) स्थित है। इस मंदिर की कुछ दीवारें मात्र शेष हैं। भू-योजना तथा मण्डप के बचे हुए स्तम्भों को देखकर प्रतीत होता है, कि बारह स्तम्भों पर आधारित रहा होगा।
एक ध्वस्त हिस्से से गर्भगृह का आभास होता है। चारों तरफ उगी झाड़ियों की वजह से कई स्तम्भ अब नजर नहीं आते । यहाँ भी आसपास कुछ पुरात्विक महत्व की वस्तुएं बिखरी हुई है, जो मंदिर के ध्वस्त हिस्से प्रतीत होते हैं।
आठ खम्भा मंदिरः इस मंदिर का अवशेष बारह खम्भा मंदिर ( Barah Khambha Mandir ) के निकट ही देखा जा सकता है। तीनों मंदिर एक दूसरे से सटकर बने हैं।
नागवंशी शासकों के युग में बने मंदिरों को मण्डप के आधार स्तम्भों की संख्या के आधार पर जाना जाता है। ये स्तम्भ अत्यधिक अलंकृत होने के कारण भी मंदिर की पहचान बन जाते थे। वैसे इन तीनों मंदिरों का अब अवशेष ही देखा जा सकता है।
जानकारों के अनुसार इन मंदिरों का निर्माण छिंदक नागवंशी शासकों के काल में हुआ था। दो वर्ष पूर्व तक सोलह खम्भा मंदिर ( Solah Khambha Mandir ) की स्थिति बचाने लायक थी परन्तु अब यह ध्वस्त हो चुका है, फिर भी इसके कुछ हिस्सों को अभी भी बचाया जा सकता है।
10 1500 वर्ष पुराना शैलचित्र
हिरमराम मंदिर ( Hiramraj Mandir )की पहाड़ी पर स्थित एक विशाल शिला पर 1500 साल पुराना चित्र बना हुआ है, जो आदिमानवों द्वारा अंकित शैलचित्र से मेल खाता है।
इस शैलचित्र में बेताल जैसी आकृति अंकित है। बेताल प्राचीन राजधानी बारसूर के सीमा प्रहरी माने जाते हैं। गाँव की चारों दिशाओं में उनकी एक-एक मूर्ति खुले आसमान के नीचे स्थापित है। प्राचीन नगरी बारसूर में ऐसे अनेक पुरातात्विक स्थल भी हैं, जिन पर अभी तक शोध नहीं किया जा सका हैं।
11 दुर्लभ विष्णु प्रतिमा
मामा भांजा मंदिर ( Mama Bhanja Mandir ) के पीछे सिंगराज तालाब के उत्तरी- पश्चिमी कोने में भगवान विष्णु की 5 फ़ीट ऊँची प्रतिमा स्थापित है।
यह प्रतिमा 11वीं शताब्दी में निर्मित है, जो पूर्व में मंदिर में स्थापित थी। वर्तमान में मंदिर पूरी तरह ध्वस्त हो चुका है। यह भव्य प्रतिमा दुर्लभ तथा दर्शनीय है। शिरोभाग के ऊपर पाँच फणयुक्त सर्प का छत्र है।
विष्णु भगवान के रूप में प्रसिद्ध इस प्रतिमा को लक्षण के आधार पर बलराम तथा नागदेवता की प्रतिमा भी कहा जाता है। बरसात के दिनों में यह प्रतिमा कंठ तक पानी में डूब जाती है।
12 मूचनार
बारसूर से लगभग 5 कि.मी. दूर स्थित मूचनार एक आकर्षक पर्यटन स्थल है। बारसूर के गणेश युगल वाले स्थान से यह लगभग 4 कि.मी. दूर है। मूचनार से होकर इंद्रावती नदी बहती है। यहाँ का कोड़नार घाट तथा उद्यान विभाग द्वारा विकसित रोपणी दर्शनीय है। यहाँ आकर इंद्रावती नदी की चौड़ाई लगभग डेढ़ सौ मीटर हो जाती है, बारिश के मौसम में जो प्राय: बढ़ जाती है।
13 सातधार जलप्रपात
Satdhar Jalprapat : जगदलपुर से 118 कि.मी. और बारसूर के लगभग 4 कि.मी. दूर सातधार गांव है। इस गांव के पास ही इंद्रावती नदी ( Indravati Nadi ) में अबूझमाड़ को जोड़ने के लिये पुल बना हुआ है।
इस पुल से एक कच्चा मार्ग अबूझमाड़ के तुलार की तरफ जाता है। इसी मार्ग में पुल से लगभग 1 कि.मी. की दूरी पर बोधघाट पहाड़ी से गिरती हुई इंद्रावती नदी में सात जलप्रपात बने हुए हैं। कुछ कुछ अंतराल पर मध्यम ऊंचाई से एक साथ सात जलधाराएं गिरती हैं। इसलिए यह गांव एवं जलप्रपात दोनों ही सातधार के नाम से जाने जाते हैं।
सातों धाराओं को अलग-अलग नाम दिया गया है। इन धाराओं के नाम हैं बोधधारा, कपिलधारा, पाण्डवधारा, कृष्णधारा, शिवधारा, बाणधारा और शिवचित्र धारा।
विश्व में यह एकमात्र उदाहरण है, जहाँ नदी कुछ ही अंतराल पर सात जलप्रपातों का निर्माण करती है। बरसात के दिनों में नदी तीव्र वेग से जब चट्टानों से टकराती है, तो चारों तरफ पानी की फुहारें उड़ती हैं, जिसके कारण वातावरण पूरी तरह से नम हो जाता है और जलप्रपात का दृश्य नर्मदा के भेड़ाघाट जलप्रपात के समान ही मनमोहक हो जाता है।
जनवरी-फरवरी माह में जब नदी का पानी कम हो जाता है, तब इन गहरी खाईयों में बहती हुई जलधाराओं का नीला रंग चांदी के समान सफेद हो जाता है। वैसे तो हर मौसम मे इन जलप्रपातों की सुंदरता का आनंद लिया जा सकता है।
खासकर दिसंबर से मार्च तक का समय इस जलप्रपात के मनमोहक दृश्यों के देखने के लिये सबसे उपयुक्त है। जलप्रपातों के चारों ओर फैले जंगल इस जगह की खूबसूरती में इजाफा करते हैं।
14 भगवान पारसनाथ, हिड़पाल
Bhagwan Parasanath : बस्तर में 11वीं सदी में छिंदक नाग शासक राजभूषण महाराज सोमेश्वर देव ( Someshwar Dev ) ने जैन धर्म को संरक्षण दिया था। उनके शासनकाल में पूरे चक्रकोट राज्य में जैन साधु निवास करते थे।
तत्कालीन समय में जैन तीर्थंकरों की बहुत सी प्रतिमाएं बस्तर ( Bastar ) के कोने-कोने में स्थापित करवायी गईं थी । सोमेश्वर देव की राजधानी कुरूषपाल ( Kushalpal ) के आसपास आज भी जैन तीर्थंकरों की बहुत सी प्रतिमाएं देखने को मिलती हैं। उप राजधानी बारसूर में भी कुछ प्रतिमाएं संग्रहालय में सुरक्षित हैं।
बारसूर के पास ही हिड़पाल नामक छोटा सा वनग्राम है। बारसूर से 16 किलोमीटर दुर हिड़पाल ग्राम में भालूनाला के पास भगवान पार्श्वनाथ और सिंह पर सवार माता दुर्गा की प्रतिमा रखी हुई है।
स्थानीय ग्रामीण इनकी भगवान विष्णु और दुर्गा के रूप में पूजा करते आ रहे हैं। भगवान विष्णु की प्रतिमा वास्तव में 23 वें जैन तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ जी की है। प्रतिमा में पीछे की तरफ सात फणयुक्त सर्प उकेरा गया है।
15 नाग मंदिर
Nag Mandir : ये प्रतिमाएं सन् 1982 के आसपास हिड़पाल में कुसुम पेड़ के नीचे रखी हुई थीं। पास के गांव वाले इन प्रतिमाओं को उठाकर ले जाना चाहते थे, लेकिन असफल रहे।
ग्रामीणों ने इन प्रतिमाओं को भालू नाले के पास ही एक छोटी सी देवगुड़ी में स्थापित कर दिया था। बारसूर जाने से पहले एक कच्चा मार्ग हिड़पाल की ओर जाता है। हिड़पाल के घने जंगलों में भालू नाले के पास ही 11वीं सदी की ये प्रतिमाएं वर्तमान में एक नये मंदिर में स्थापित कर दी गई हैं।
कहा जाता है, कि इस नाले पर भालू पानी पीने आते हैं, इसलिए उसे भालू नाला कहा जाता है, हिड़पाल जाने का मार्ग भी घने जंगलों से घिरा हुआ है। किसी जानकार व्यक्ति के साथ इन प्रतिमाओं को देखने जाना उचित होगा।