दंतेवाड़ा जिले का इतिहास पर्यटन स्थल | History of Dantewada District


दंतेवाड़ा जिले का इतिहास पर्यटन स्थल | History of Dantewada District

दंतेवाड़ा जिला सन् 1998 में अस्तित्व में आया। पहले यह बस्तर जिले की तहसील था। वस्तुतः यह बस्तर का दक्षिणी हिस्सा है, जहाँ आज भी बस्तर की संस्कृति जीवित है।

दंतेवाड़ा अपने ऐतिहासिक महत्व के लिए जाना जाता है। यह जिला आंध्रप्रदेश और ओड़िसा की सीमाओं से घिरा हुआ है, तथापि यहाँ के निवासी अपनी मौलिक संस्कृति के लिए जाने जाते हैं।

प्रसिद्ध धार्मिक ग्रंथ रामायण के अनुसार इस क्षेत्र में राम ने अपना निर्वासन काल व्यतीत किया था। रामायण में यह क्षेत्र दण्डकारण्य के नाम से वर्णित है। यह जिला भारत की सबसे पुरानी बसाहटों में से एक है। इस शहर का नाम इस क्षेत्र की आराध्य देवी दंतेश्वरी के नाम पर पड़ा।

पर्यटन की दृष्टि से यह एक आदर्श स्थल है। दंतेवाड़ा में माड़िया, मुड़िया, धुरवा, हल्बा, भतरा, गोण्ड जैसे अनेक जनजातीय समूह है। इनके द्वारा उत्सवों और मेले के दौरान गाए जाने वाले गीत और नृत्यों में ग्रामीण संस्कृति की अनुपम छटा नज़र आती है।

जनजातीय समूहों को गौर का सींग धारण कर दंडामी माड़िया या गौर नृत्य करते देखना अपने आप में एक अलग ही अनुभूति है।

01 दंतेश्वरी मंदिर

यह प्रसिद्ध शक्तिपीठ दंतेवाड़ा जिले में शंखिनी और डंकिनी नदियों के संगम पर स्थित है। महिषासुरमर्दिनी को समर्पित यह मंदिर स्थानीय निवासियों के बीच माईजी मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है और 52 शक्ति पीठों में से एक है। यह मंदिर एक विशाल परिसर में स्थापित है।

इस पूर्वाभिमुखी मंदिर में पिरामिडनुमा शिखर वाला गर्भगृह, स्तंभयुक्त सभागार तथा स्तंभयुक्त नाट्यमंडप दर्शनीय है। गर्भगृह प्रस्तर निर्मित है, जो मूल मंदिर का हिस्सा रहा होगा।

देवी दंतेश्वरी की काले ग्रेनाईट से निर्मित अष्टभुजी प्रतिमा स्थापित है, जो विभिन्न आभूषणों से सज्जित हैं। देवी के सिर के ऊपर चांदी का छत्र सुशोभित है। देवी प्रतिमा के अर्धवृत्ताकार शीर्षखंड में नरसिंह द्वारा हिरण्यकश्यपु के संहार का एक दृश्य अंकित है।

पूर्वी दक्षिणामुखी यह मंदिर अंगभूत संयोजना से निर्मित है। 21 स्तम्भों से युक्त सिंहद्वार के पूर्व दिशा में काले प्रस्तर से निर्मित दो सिंह विराजमान है। महामण्डप बत्तीस काष्ठ स्तम्भों पर आधारित है। इसे नट मण्डप कहा जाता है, जिसका निर्माण बस्तर की शासिका प्रफुल्ल कुमारी देवी ने करवाया था।

काष्ठ मंडप के कारण मंदिर के सामने के तीन अन्य प्रस्तर मंदिर उसके अंदर आ गये है जो कि भैरव और शिव को समर्पित हैं, मंदिर में प्रवेश करने हेतु कुल 4 दरवाजों से होकर गुजरना पड़ता है।

दूसरे दरवाज़े के बाद गणेशजी, काली एवं अन्य देवी देवताओं की मूर्तियाँ स्थापित हैं।

तीसरे द्वार पर दो व्याघ्र व्याल बैठे हुए नज़र आते हैं। वहीं गर्भगृह में देवी दंतेश्वरी की प्रतिमा स्थापित है। गर्भगृह के ठीक सामने पद्म चिन्ह है, जिसका पहले तंत्र विद्या में उपयोग किया जाता था।

मंदिर के गर्भगृह में सिले हुए वस्त्र पहनकर आना प्रतिबंधित है। जरुरत पड़ने पर मंदिर समिति द्वारा श्रद्धालुओं को धोती उपलब्ध करवा दी जाती है। मंदिर में नागयुगीन एवं काकतीय चालुक्यों के प्राचीन शिलालेख भी रखे हुए हैं।

यह मंदिर मूल रूप से 11वीं-12वीं शती ईस्वी में निर्मित है, परंतु पुन: 14वीं शती ईस्वी में वारंगल के राजा प्रतापरूद्र के भ्राता अन्नमदेव द्वारा इसके जीर्णोद्धार के प्रमाण मिलते हैं। पुनः बस्तर के शासक द्वारा वर्तमान सदी के प्रारम्भिक काल में इस मंदिर का जीर्णोद्धार किया गया। देवी दंतेश्वरी दुर्गा के नवरूपों में से एक है।

जनश्रुति है, कि यहाँ सती पार्वती के निर्जीव शरीर से दाँत गिरे थे। इसलिए इस ग्राम को दंतेवाड़ा और देवी को दंतेश्वरी देवी कहते हैं। इस क्षेत्र की पवित्र नदियाँ शंखिनी और डंकिनी यहीं बहती हैं। इसमें से शंखिनी नदी का पानी लाल- भूरा दिखाई देता है।

इसके विषय में कहा जाता है, कि राजा दिक्पाल देव ने अपनी सेना के साथ जब दंतेवाड़ा में प्रवेश किया तो उनके हाथी- घोड़े व सैनिकों के बीच दबकर पशु मारे गए थे। पशु संहार के कारण पशुओं का रक्त नदी में मिल गया तभी से शंखिनी का पानी लाल-भूरा हो गया है।

परंतु वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो इस नदी के पास ही बैलाडिला की पहाड़ी है, जहाँ लौह अयस्क का भण्डार छुपा हुआ है, उसी के प्रभाव से शंखिनी नदी का पानी लाल-भूरा है।

जनश्रुति के अनुसार बस्तर के पहले काकतीय राजा अन्नम देव वारंगल से यहाँ आए थे। उन्हें माता ने वर दिया था, कि जहाँ तक वे जाएंगे, उनका राज्य वहाँ तक फैलेगा। शर्त यह थी, कि राजा पीछे मुड़कर न देखें। जहाँ वह पीछे मुड़कर देखेंगे वहीं माता का मंदिर बनवाकर उन्हें स्थापित करना होगा।

अन्नम देव ने चलना शुरू किया और वे कई दिन और कई रात तक चलते रहे । चलते-चलते शंखिनी और डंकिनी नदी के संगम तट पर पहुँचे। राजा ने नदी पार कर ली परंतु उन्हें पीछे से आती हुई माता के पायल की आवाज सुनाई नहीं दी। आशंका में भरकर उन्होंने पीछे मुड़कर देखा तो माता नदी पार कर रही थी। राजा के पीछे मुड़ते ही माता ने आगे जाने से इंकार कर दिया।

वचन के अनुसार राजा ने वहीं शंखिनी-डांकिनी नदी के तट पर माता का मंदिर बनवाया जो आज दंतेश्वरी मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। यह मंदिर एक तीर्थ स्थल होने के साथ-साथ ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है।



02 भुनेश्वरी देवी मंदिर

मुख्य मंदिर से 25 मीटर की दूरी पर एक और मंदिर स्थापित है, जो भुनेश्वरी मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है।

10वीं शताब्दी में निर्मित इस पूर्वाभिमुखी मंदिर में गर्भगृह, मण्डप तथा महामण्डप तीन अंग हैं। इसकी ऊँचाई 4 फ़ीट है। इन्हें मावली माता तथा मणिकेश्वरी देवी के नाम से भी जाना जाता है।

भुनेश्वरी देवी आंध्रप्रदेश में देवी पेदम्मा के नाम से विख्यात हैं। दंतेवाड़ा में भुनेश्वरी को दंतेश्वरी देवी की छोटी बहन माना जाता है। दोनों मंदिरों में एक साथ आरती होती है तथा भोग लगाया जाता है। यह मंदिर दंतेश्वरी मंदिर से लगकर खड़ा है। इस मंदिर का निर्माण जगदेवभूषण नरसिंहदेव ने सन् 1218 से 1224 के मध्य करवाया था।

अन्य मान्यता के अनुसार इसका निर्माण गंगवंश के नरेशों ने 10वीं शताब्दी में करवाया था। इस मंदिर में भुनेश्वरी देवी के अलावा नरसिंग देव तथा देवी लक्ष्मी की प्रतिमा भी स्थापित है।



03 पाँच पाण्डव मंदिर

यह छोटा और गुमनाम सा मंदिर दंतेश्वरी मंदिर के ठीक सामने स्थित है। यहाँ हज़ारों की संख्या में प्रतिदिन श्रद्धालु पहुँचते हैं, परंतु शायद ही कोई पाँच पाण्डव मंदिर के बारे में जानता हो। यह मंदिर शिव को समर्पित है।

जानकारों के अनुसार इस मंदिर की स्थापना दंतेश्वरी मंदिर के साथ ही हुई थी। यहाँ शिवरात्रि के अवसर पर नौ दिनों तक पूजा-अर्चना की जाती है। शेष दिनों में यहाँ ताला जड़ा रहता है। यह सदियों से चली आ रही परम्परा है।

शिवरात्रि के अवसर पर पंडाल समुदाय के पुजारी पहाड़ से विशेष प्रकार का बाँस लाते हैं तथा उससे मूर्ति बनाते हैं, जिसकी नौ दिनों तक पूजा की जाती है। बाँस से बनी मूर्ति तीन साल तक मंदिर में रखी रहती है। तीन साल बाद पुरानी मूर्ति को विसर्जित कर नई मूर्ति बनायी जाती है। रियासत काल में पंडाल तेलंगा जाति के लोगों को पूजा करने का अधिकार दिया गया था।



04 गरूड़ स्तम्भ

दंतेश्वरी मंदिर प्रांगण में स्थापित ऐतिहासिक महत्व का गरूड़ स्तम्भ दर्शनीय है। मान्यता है कि 13वीं शताब्दी के प्रारंभ में काकतीय वंश ने बारसूर के निकटवर्ती क्षेत्रों से जीर्ण-शीर्ण पुरातात्विक महत्व के अवशेषों को संरक्षित करने का प्रयास किया था।

पं. केदार नाथ ठाकुर द्वारा सन् 1904 में लिखित पुस्तक 'बस्तर भूषण' के अनुसार बारसूर के नारायण गुड़ी से गरूड़ स्तम्भ उठाकर दंतेवाड़ा में माई दंतेश्वरी मंदिर में रखा गया। स्थानीय मान्यता के अनुसार पीठ की तरफ से यदि यह स्तंभ दोनों बाँहों में समा जाए तो मनोकामना जरुर पूरी होती है।



05 चरण चिन्ह और भैरव मंदिर

दंतेश्वरी मंदिर के पिछवाड़े में एक बड़ी सी शिला के ऊपर छोटे से प्रस्तर खंड पर उत्कीर्ण देवी का पदचिन्ह है। मंदिर आने वाले श्रद्धालु इस पदचिन्ह को प्रणाम कर मन्नत मांगते हैं।

यहाँ से थोड़ी दूरी पर माईजी की बगिया है, जहां से होते हुए शंखिनी और डंकिनी नदी के संगम स्थल तक पहुंचा जा सकता है। इस नदी पर छोटा सा पुल बना है। पर्यटक इस पुल पर खड़े होकर डंकिनी के पानी से शंखिनी के लाल- भूरे पानी का पूरे वेग से टकराना देखते हैं। बारिश में यह नज़ारा अद्भुत होता है। इसे पार करने के बाद भैरव मंदिर नज़र आता है। बाहर से मंदिर की संरचना आधुनिक प्रतीत होती है लेकिन गर्भगृह, बरामदे व परिसर में कई प्राचीन मूर्तियाँ स्थापित हैं।

भैरव बाबा के दर्शन के बिना देवी दर्शन अपूर्ण माना जाता है। इस मंदिर में शिवलिंग भी स्थापित है। इसी मंदिर परिसर में ही एक अन्य मंदिर भी है जो डालखाई माता मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। इस मंदिर की प्रसिद्धि भी दूर-दूर तक फैली है। इन्हें पत्तों वाली टहनियां अर्पित की जाती है।

मान्यता है, डालखाई माता मनुष्य के साथ-साथ पशु पक्षियों की भी रक्षा करती हैं। कुछ लोग इन्हें वनदुर्गा भी कहते हैं। प्रतिमा विश्लेषण के आधार पर 11वीं सदी में निर्मित भैरवी प्रतिमा माना गया है। यह मंदिर केंद्रीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित है।



06 प्राचीन प्रतिमाएं, दंतेश्वरी मंदिर

दंतेश्वरी मंदिर में कई ऐतिहासिक महत्व की प्रतिमाएं देखी जा सकती है। इनमें विष्णु, गणपति शिव-पार्वती, नरसिंह, आदि की प्रतिमाएं प्रमुख हैं।

कहा जा सकता है कि दंतेश्वरी मंदिर अपने आप में एक भव्य पुरातात्विक संग्रहालय है। इस मंदिर के भीतर स्थापित अधिकांश प्रतिमाएं नागवंशी (760 ई1324 ई) अथवा नल (ईसा पूर्व 600 से ) शासकों द्वारा निर्मित हैं।

इनमें गणेश प्रतिमा विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यह दंतेश्वरी मंदिर में गर्भगृह के ठीक बाहर दाहिनी ओर निकासी द्वार के समीप स्थापित है। लगभग 5 फ़ीट ऊँची तथा काले प्रस्तर से निर्मित यह प्रतिमा बैठी हुई अवस्था में है।



07 ढोलकल पर्वत एवं प्राचीन गणेश प्रतिमा

दंतेवाड़ा जिला मुख्यालय से महज 17 किलोमीटर दूर फरसपाल ग्राम है, जहाँ से बैलाडिला पर्वत श्रंखलाएँ शुरू होती हैं।

पौराणिक कथा के अनुसार परशुराम के फरसे से गणेश जी का एक दाँत टूटा था, इसलिए पहाड़ी के नीचे स्थित गाँव का नाम फरसपाल पड़ा।

पहाड़ी श्रंखलाओं से करीब 10 किलोमीटर की ऊँची खड़ी पहाड़ी चोटी पर ढोलनुमा दो पर्वत शिखर हैं, जिसे स्थानीय आदिवासी ढोलकल पर्वत के नाम से जानते हैं। यह पहाड़ी जिला मुख्यालय से लगभग 24 किलोमीटर दूर है। यहाँ स्थित पहाड़ियों के शिखरों की ऊँचाई लगभग 2994 फ़ीट है। पहले पर्वत शिखर पर गणेशजी की 10वीं शताब्दी की प्रतिमा एवं दूसरे शिखर पर सूर्य मंदिर स्थापित थी, जो कि अब गायब है।

पुरातत्वविदों का अनुमान है, कि दंतेवाड़ा क्षेत्र के रक्षक के रूप में नागवंशियों ने इस स्थान पर गणेश प्रतिमा की स्थापना की होगी। इस स्थान तक पहुँचना आज भी अत्यंत कठिन है। ग्रेनाइट पत्थर से निर्मित यह प्रतिमा वास्तुकला की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है।

चर्तुभुजी गणपति प्रतिमा के ऊपरी दायें हाथ में फरसा, ऊपरी बाँये हाथ में टूटा हुआ दंत, निचले दायें हाथ में अभय मुद्रा में रूद्राक्ष माला, तथा निचले बांये हाथ में मोदक धारण किये हुए विराजित है।

पुरातत्वविदों के अनुसार इस प्रकार की प्रतिमा बस्तर क्षेत्र में कहीं नहीं है। गणेश प्रतिमा के उदर क्षेत्र में नाग चिन्ह अंकित है, जिसके आधार पर इसे 10-11वीं शताब्दी में नागवंशीय शासक द्वारा निर्मित माना जा रहा है। प्रतिमा अपना संतुलन बनाए रखे इसके लिए गणेश जी के जनेऊ में शिल्पकार ने सांकल का उपयोग किया है।

स्थानीय आदिवासियों के अनुसार इस पर्वत शिखर पर ही सूर्य की प्रथम किरणें पड़ती हैं, इसीलिए यहाँ पर सूर्य मंदिर की भी स्थापना की गई थी । वर्तमान में सूर्य मंदिर में सूर्य की प्रतिमा नहीं है। इस स्थल पर अनेक पुरातत्व अवशेष बिखरे पड़े हैं।

ढोलकल पहाड़ के नीचे मिरतुर जाने वाली पगडण्डी के किनारे पुराने आवासों की ईंटें बिखरी पड़ी हैं। पास ही प्राचीन शिवलिंग की क्षतिग्रस्त जलहरी है। ग्रामीण इसे ओखली मानते हैं। यहाँ पत्थरों से निर्मित कई छोटे-छोटे आवास हैं। आसपास के ग्रामीण इन्हें बरहागुड़ा कहते हैं।

आसपास स्थित फरसपाल, भोगाम, कंवलनार, पण्डेवार आदि गाँवों में लोक कथा प्रचिलित है, कि द्यूरमुत्ते (देवी) इस पहाड़ के भोगा मुत्तेन कल (खोह) में रहती थी और डमरू जैसा वाद्य बजाकर गणेशजी की पूजा करती थीं।

पहाड़ के चट्टानों के मध्य से उस डमरू की आवाज आती थी। इसलिए ग्रामीण इस शिखर को डोलमेट्टा कहते हैं, जो कालांतर में ढोलकल के नाम से चर्चित हुआ। 24 जनवरी 2017 को इस मूर्ति को तोड़ दिया गया था। पहले इसका संदेह नक्सलियों पर गया, लेकिन बाद में पता चला, कि यह कृत्य कतिपय असामाजिक तत्वों का था। परंतु इस मूर्ति के प्रति जनभावना को देखते हुए पुरातत्व विभाग द्वारा इसके सभी टुकड़ों को जोड़कर पुन: उसी पहाड़ी पर स्थापित कर दिया गया है।



08 झारालावा जलप्रपात

दंतेवाड़ा-बचेली मार्ग में भांसी गाँव से कुछ दूर पहले एक कच्चा रास्ता अंदर बासनपुर की तरफ जाता है। बासनपुर ग्राम से कुछ दूरी पर बैलाडीला की दो हिस्सों में बंटी हुई पहाड़ी है।

झारालावा जलप्रपात इसी पहाड़ी पर स्थित है। यहाँ इसी नाम का एक वीरान सा गाँव है, जिसके नाम पर यहाँ से बहने वाले नाले और नाले से निर्मित जलप्रपात का नाम झारालावा पड़ा।

यह झरना दो चरणों में बहता है। पहला चरण पहाड़ी की तलहटी में ही है। यहाँ लगभग 70 फीट ऊंचाई लिये हुए जलधारा एक चबूतरेनुमा चट्टान से टकराकर एक कुंड में गिरता है। यहां नाले का पानी सुरंग से रास्ता बनाते हुए कुंड में गिरता है। यहां काफी संभलकर चलना होता है। इस झरने के बाद मुख्य झरने के लिये 3000 फ़ीट की चढ़ाई के बाद पुनः नीचे उतरना पड़ता है। यहां 20 फ़ीट की ऊँचाई से जलधारा गिरती है। स्थानीय ग्रामीण इसे झिरका झरना भी कहते हैं।



09 उर्सगत्ता पोस्ट, ढिलमिली

दंतेवाड़ा तहसील में ढिलमिली नामक स्थान पर मेनहिर के रूप में बड़े पत्थरों से बनी हुई समाधियाँ हैं, जो स्थानीय निवासियों के बीच उर्सगत्ता पोस्ट के नाम से प्रचलित है। काष्ठ स्तम्भयुक्त इस वर्गाकार स्मारक में विभिन्न जीव-जंतु तथा मानवाकृतियाँ उकेरी हुई हैं। यह स्मारक उत्तर मध्ययुगीन माना जाता है।



10 उरेस्कल्स, गम्मेवाड़ा

दंतेवाड़ा तहसील में गम्मेवाड़ा नामक ग्राम में बड़े पत्थरों से निर्मित समाधियां मेनहिर के रूप में पायी जाती है। ये मेनहिर स्थानीय निवासियों के बीच उरेस्कल्स के नाम से प्रचलित हैं जिसका अर्थ समाधि होता है। पुरातत्वविदों के अनुसार इन दुर्लभ मेनहिरों का का निर्माणकाल 3-4 शती ईस्वी है।



11 कोलाकामिनी मंदिर, समलूर (तपेश्वरी माता)

दंतेवाड़ा जिले के समलूर में शंखिनी-डंकिनी नदी के संगम से केवल 1 किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह मंदिर अपनी अनेक विशेषताओं के कारण जन-आकर्षण का केंद्र तो है ही, पर्यटन विकसित करने का आयाम भी बन सकता है।

देवी कोलाकामिनी को दो अन्य नामों जलकामिनी तथा तपेश्वरी माता के नामों से भी जाना जाता है। इन तीनों ही नामों से परिचय की पृथक-पृथक कहानियाँ हैं।

माता के कालिया अर्थात सिंह वाहन होने के कारण नाम कोलाकामिनी, जालंगा झोड़ी (जल स्रोत) के तट पर स्थित होने के कारण जलकामिनी एवं काली पहाड़ के नीचे तपमुद्रा में अवस्थित होने के कारण तपेश्वरी नाम दिये गये हैं।

ये तीनों ही नाम समान रूप से प्रचलन में हैं तथापि तपेश्वरी माता होने की ख्याति अधिक इसलिये है कि तपमुद्रा की प्रतिमा को छतविहीन मंदिर में रखा गया है ताकि उनकी तपस्या में किसी तरह का व्यवधान उत्पन्न न हो ।

बाह्य निरीक्षण से ज्ञात होता है कि यह भैरवी की प्रतिमा है जिसमें त्रिशूल और डमरू स्पष्टतः दिखाई पड़ते हैं। प्रतिमा को चांदी के आभूषणों और वस्त्रों से ढंक दिया गया है, इसलिए प्रतिमा की बारीक जानकारियाँ नहीं मिलतीं ।

इस मंदिर में मुख्य रूप से निकटवर्ती सात गावों आलनार, कुण्डेनार, बड़े सुरोखी, छोटे सुरोखी, सियानार, समलूर एवं बुधपदर की आस्थाएं जुड़ी हुई हैं। उनके ही संरक्षण में यहाँ दैनिक पूजा सम्पन्न होती है। इस देवी स्थान पर प्रत्येक बैशाख शुक्ल पक्ष में मेला लगता है और निकटवर्ती गावों के हजारों लोग इसमें सम्मिलित होते हैं।

शारदीय तथा चैत्र नवरात्र में देवी दुर्गा की पूजा प्रार्थना यहाँ नियमपूर्वक होती है, सैकड़ों दीप यहाँ इस अवसर पर दैनिक रूप से प्रज्ज्वलित किये जाते हैं, इस अवसर पर यहाँ कलश स्थापना भी की जाती है एवं हवन पश्चात शंखिनी-डंकिनी नदी में उसे विसर्जित कर दिया जाता है।



12 भैरम देव मंदिर, तुमनार

दंतेवाड़ा-तुमनार मार्ग पर जिला मुख्यालय से लगभग 24 किलोमीटर दूर भैरम बाबा का छोटा सा मंदिर है।

स्थानीय निवासी इसे बाबा घाट भैरम देव मंदिर कहते हैं। इस मंदिर के गर्भगृह में बाबा भैरम देव की प्रतिमा स्थापित है। गर्भगृह से सटा हुआ एक और प्राचीन प्रतिमा स्थापित है, जिसे विष्णु माना जाता है।

यह मंदिर ग्रामीणों द्वारा निर्मित है, परंतु प्रतिमाएं 10वीं-11वीं शताब्दी की हैं। इस क्षेत्र में अनेक प्राचीन प्रतिमाएं खुले में बिखरी पड़ी हैं। स्थानीय निवासियों के अनुसार यहाँ स्थित तालाब किनारे पिछले 700 वर्षों से विष्णु तथा बेताल की प्रतिमाएं पड़ी हुई हैं।

नेलसनार-मिरतुर मार्ग केतुलनार गांव में भी नदी पर स्थित है की रेत में दबी हुई दर्जनों दुर्लभ प्रतिमाएँ मिली हैं। स्थानीय ग्रामीणों ने इन प्रतिमाओं को पंडवाल नामक गुड़ी में रख दिया है।



13 करली महादेव मंदिर, समलूर

नागर शैली में निर्मित यह मंदिर 11वीं शताब्दी में तत्कालीन नागवंशी शासक सोमेश्वर देव की महारानी सोमलदेवी ने बनवाया था। सोमलदेवी के नाम पर ही समलूर गांव बसाया गया था।

जिला मुख्यालय से 25 कि.मी. दूर गीदम विकासखंड में स्थित है। 4 फ़ीट ऊंची जगती पर स्थापित इस मंदिर की जिलहरी व शिवलिंग बत्तीसा मंदिर की जिलहरी से मिलती-जुलती शैली में बनी है।

विशिष्ट नक्काशीदार जिलहरी वाले इस शिवालय को देखने बड़ी संख्या में सैलानी व दर्शनार्थी पहुंचते हैं। शिवलिंग के सम्मुख नंदी की सुन्दर प्रतिमा है। मंदिर में सावन सोमवार के अलावा महाशिवरात्रि, माघ पूर्णिमा जैसे खास अवसरों पर दर्शनार्थियों की कतार लगती है।

महाशिवरात्रि पर मंदिर परिसर के बाहर मेला लगता है। इस मंदिर का दक्षिण-पश्चिमी कोना जमीन में धंसने की वजह से एक तरफ झुकने लगा है।